Monday 30 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 30 June 2014 
(आषाढ़ शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

साधन करने में कोई असमर्थ नहीं है

जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि साधन करने में न तो असमर्थता है और न असिद्धि; क्योंकि साधन साधक की वर्तमान योग्यता, रुचि तथा सामर्थ्य पर निर्भर है । अथवा यों कहो कि प्राप्त बल के सदुपयोग एवं विवेक के आदर में ही साधन निहित है । साधन करने के लिए किसी अप्राप्त बल, वस्तु, व्यक्ति आदि की अपेक्षा नहीं है और न उस ज्ञान की आवश्यकता है, जो अपने में नहीं है, अपितु जो है, उसी से साधन करना है ।

यह नियम है कि सामर्थ्य की न्यूनता तथा अधिकता साधन में कोई अर्थ नहीं रखती । जिस प्रकार पथिक यदि अपनी ही गति से अपने मार्ग पर चलता रहे, तो अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच ही जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक साधक यदि अपनी योग्यता, रुचि तथा सामर्थ्य के अनुरूप साधननिष्ठ हो जाए, तो सिद्धि अवश्यम्भावी है । इसमें संदेह के लिए कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि किसी भी साधक को वह नहीं करना है, जिसे वह नहीं कर सकता, परन्तु वह अवश्य करना है, जिसे वह कर सकता है ।

अब प्रश्न यह होता है कि जब साधन में असमर्थता और असिद्धि नहीं है, तब हम साधनपरायण क्यों नहीं हो पाते और हमें साध्य की उपलब्धि क्यों नहीं होती ? तो कहना होगा कि इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक साधक को स्वयं ही देना है, किसी अन्य से नहीं लेना है; क्योंकि जो जानते हुए भी नहीं मानता और करने की सामर्थ्य होते हुए भी नहीं करता, उसे न कोई जना सकता है और न कोई उससे करा सकता है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 40-41)

Sunday 29 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 29 June 2014 
(आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

अब यदि कोई यह कहे कि योगी विवेकी और प्रेमी होने के लिए तो जीते-जी मरने की बात है, पर समाज-सेवा के लिए तो जीवन में मृत्यु का अनुभव आवश्यक नहीं है । तो  कहना होगा कि वास्तविक सेवा के लिए भी जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करना होगा, क्योंकि सेवा त्याग की भूमि तथा प्रेम की जननी है । सेवा वही कर सकेगा, जो अपने सेव्य के मन की बात पूरी कर सके और उसके बदले में किसी प्रकार की आशा न करे । दूसरे के मन की बात पूरी करने में अपने मन को दे देना होगा । अत: जीते-जी बिना मरे सेवा की भी सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अपने पास अपने मन का न रहना ही जीते-जी मरना है । जब तक अपने पास अपना मन रहता है, तब तक मृत्यु में जीवन प्रतीत होता है और जब अपने पास अपना मन नहीं रहता, तब जीवन में ही मृत्यु का अनुभव होता है ।

अब यदि कोई यह कहे कि अपने पास अपना मन न रहे, इसके लिए साधक को क्या करना है ? तो कहना होगा कि साधक का जिनसे सम्बन्ध है, उनके मन से अपना मन मिला देना चाहिए, पर उसी अंश में जिस अंश में उनका हित हो ।

यदि असमर्थता के कारण साधक दूसरों के मन की बात पूरी न कर सके, तो उसे नम्रतापूर्वक दुखी हृदय से क्षमा माँग लेनी चाहिए । ऐसा करने से भी साधक का मन साधक के समीप न रहेगा, क्योंकि किसी के मन की बात पूरी करना अथवा मन की बात पूरी न करने के दुःख से दुखी होना समान अर्थ रखता है । अत: योगी, विवेकी, प्रेमी और सेवक होने के लिए जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करना है । योग से सामर्थ्य, विवेक से अमरत्व और प्रेम से अगाध अनन्त रस की उपलब्द्धि सुगमतापूर्वक हो सकती है, जो वास्तविक जीवन है ।


 - ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 38-39)

Sunday 15 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 15 June 2014 
(आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

इच्छाओं का अन्त होते ही देहाभिमान गल जाता है । फिर सभी अवस्थाओं से अतीत जो सभी अवस्थाओं का प्रकाशक है, उस स्वयं प्रकाश नित्य-जीवन से अभिन्नता हो जाती है; अथवा यों कहो कि शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को उसके समर्पित कर देना है, जो सर्व का प्रकाशक है, जिससे सभी सत्ता पाते हैं, जो सभी का सब कुछ है और सबसे अतीत भी है । उसका सम्बन्ध, उसकी जिज्ञासा तथा उसकी स्मृति और प्रीति के उदय होने पर ही जीवन में मृत्यु का अनुभव हो सकता है; क्योंकि उसका सम्बन्ध अन्य सम्बन्धों को खा लेता है, उसकी जिज्ञासा भोगेच्छाओं को भस्म कर देती है, उसकी स्मृति अन्य की विस्मृति कराने में समर्थ है और उसकी प्रीति उससे दूरी तथा भेद मिटाने में हेतु है, अथवा यों कहो कि अनन्त की प्रीति अनन्त से अभिन्न कर देती है ।

जीवन में ही मृत्यु का अनुभव किये बिना कोई भी योगी, विवेकी और प्रेमी नहीं हो सकता, क्योंकि योगी होने के लिए भोग-वासनाओं का अन्त करना होगा और भोग-वासनाओं का अन्त करने के लिए अपने को तीनों शरीरों से अलग अनुभव करना होगा । इस दृष्टि से योग की सिद्धि के लिए भी जीवन में ही मृत्यु का अनुभव अनिवार्य है । विवेकी होने के लिए भी साधक को समस्त दृश्य से अपने को विमुख करना है, अर्थात् दृष्टि को दृश्य से विमुख कर अमरत्व से अभिन्न करना है । अत: उसके लिए भी निराधार होकर जीवन ही में मृत्यु स्वीकार करना अनिवार्य है । इसी प्रकार प्रेमी होने के लिए भी जीते-जी ही मरना होगा, क्योंकि प्रेमी वही हो सकता है, जो सब प्रकार की चाह से रहित हो और अपना सर्वस्व अपने प्रेमास्पद को बिना किसी शर्त के समर्पित कर दे ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 37-38)

Saturday 14 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 14 June 2014 
(आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

परिवर्तनशील जीवन से निराश होते ही जीवन ही में मृत्यु का अनुभव हो जाता है । साधक सब ओर से विमुख होकर अपने ही में अपने वास्तविक जीवन से अभिन्न हो, अमर हो जाता है । फिर शरीर आदि प्रत्येक वस्तु अपने से स्पष्ट अलग अनुभव होती है । इतना ही नहीं, कर्म चिन्तन, स्थिति आदि सभी अवस्थाओं से असंगता हो जाती है और जड़ता का अन्त हो जाता है, अथवा यों कहो कि दिव्य चिन्मय जीवन से अभिन्नता हो जाती है ।

उत्पत्ति-विनाश का तो एक क्रम है, जो धीरे-धीरे होता रहता है; परन्तु अमरत्व से अभिन्नता वर्तमान ही में हो जाती है; क्योंकि वह सर्वकाल में ज्यों-का-त्यों है अथवा यों कहो कि काल से अतीत है । जीवन ही में मृत्यु का अनुभव और अमरत्व की प्राप्ति युगपत होती है; पर जीवन ही में मृत्यु का अनुभव तब हो सकता है, जब शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी से सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जाए, जो विवेकसिद्ध है । विवेक अभ्यास नहीं है, अपितु निज-ज्ञान का आदर है । इस कारण वर्तमान में ही फल देता है ।

अब यदि कोई यह कहे कि शरीर आदि से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर क्या वर्तमान कार्य हो सकेगा ? तो कहना होगा कि सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही कार्य सुन्दरतापूर्वक हो सकता है; क्योंकि सम्बन्ध-विच्छेद होने से अनासक्ति आ जाती है, जो सभी दोषों को खा लेती है, अथवा यों कहो कि इससे इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी शुद्ध हो जाते हैं । इनके शुद्ध होने से समस्त व्यवहार पवित्र तथा सुन्दर होने लगते हैं, क्योंकि अशुद्धि ही कर्तव्य में दोष उत्पन्न करती है । शुद्धि तो कर्तव्यनिष्ठ बनाती है । इस दृष्टि से अमरत्व की प्राप्ति तथा वर्तमान जीवन का सदुपयोग, ये दोनों जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करने में निहित हैं ।

अब यदि कोई यह प्रश्न करे कि जीवन में ही मृत्यु का अनुभव कैसे किया जाए ? तो इस समस्या को हल करने के लिए साधक को सर्वप्रथम जीवन और मृत्यु के स्वरूप को जानना होगा । वर्तमान जीवन क्या है ? जीवन-शक्ति, प्राण और इच्छाओं का समूह । मृत्यु क्या है ? प्राण-शक्ति का व्यय हो जाना और इच्छाओं का शेष रह जाना । जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करने के लिए साधक को प्राणों के रहते हुए ही इच्छाओं का अन्त करना होगा ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 36-37)

Friday 13 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 13 June 2014 
(ज्येष्ठ पूर्णिमा, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

जीवन का सदुपयोग तभी हो सकता है, जब वर्तमान जीवन में ही अर्थात् प्राणों के रहते हुए ही मृत्यु का अनुभव हो जाए । यह तभी सम्भव होगा, जब निज-विवेक के प्रकाश में परिवर्तनशील जीवन का अध्ययन किया जाए । यह सभी को मान्य होगा कि प्रत्येक वस्तु, अवस्था और परिस्थिति निरन्तर बदल रही है; उसमें स्थायित्व मानना निज-विवेक का अनादर है । जिसे साधारण दृष्टि से स्थिति कहते हैं, वह वास्तव में परिवर्तन का क्रम है, और कुछ नहीं; अथवा यों कहो कि समस्त वस्तुएँ अमरत्व की ओर दौड़ रही हैं, क्योंकि परिवर्तन के ज्ञान में ही अपरिवर्तन की लालसा विद्यमान है ? उस लालसा की पूर्ति वर्तमान में हो सकती है, क्योंकि जो उत्पत्ति विनाश-रहित है, उससे देश-काल की दूरी नहीं हैं और जिसमें देश-काल की दूरी नहीं है, वह वर्तमान में ही प्राप्त हो सकता है ।

परिवर्तनशील जीवन की आशा में आबद्ध प्राणी न तो वर्तमान जीवन का सदुपयोग कर पाता है, न अमरत्व से अभिन्न हो सकता है और न मृत्यु से ही बच सकता है । अत: परिवर्तनशील जीवन से निराश होकर साधक को वर्तमान जीवन का सदुपयोग करने तथा अमरत्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए, क्योंकि अमरत्व से जातीय तथा स्वरूप की एकता है । जिससे स्वरूप की एकता है, उसकी प्राप्ति अनिवार्य है । जिसकी प्राप्ति अनिवार्य है, उससे निराश होना प्रमाद है और जिसमें सतत परिवर्तन है, उसकी आशा करना भूल है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 35-36)

Thursday 12 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 12 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

वर्तमान जीवन का सदुपयोग

जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि वर्तमान परिवर्तनशील जीवन के सदुपयोग में ही नित्य जीवन और दुरुपयोग में ही मृत्यु निहित है । यद्यपि जन्म और मृत्यु दोनों एक ही परिवर्तनशील जीवन की दो अवस्थाएँ हैं, क्योंकि जन्म से ही मृत्यु आरम्भ हो जाती है और मृत्यु के अन्त में जन्म स्वाभाविक है । परन्तु यदि वर्तमान जीवन को साधन-युक्त बना दिया जाए, तो मृत्यु से पूर्व ही अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है ।

अब विचार यह करना है कि वर्तमान जीवन का सदुपयोग क्या है ? तो कहना होगा कि अपने-आप आए हुए सुख-दुःख का सदुपयोग ही वर्तमान जीवन का सदुपयोग है । सुख का सदुपयोग उदारता में और दुःख का विरक्त होने में निहित है । उदारता सुख-भोग की आसक्ति को और विरक्ति सुख-भोग की कामना को खा लेती है ।

उदारता का अर्थ दूसरों के दुःख से दुःखी होकर प्राप्त सुख का सद्व्यय करना है और विरक्ति का अर्थ इन्द्रियों के विषयों से अरुचिका जागृत होना है । विषयों की अरुचि अमरत्व की जिज्ञासा जागृत करती है । ज्यों-ज्यों जिज्ञासा सबल और स्थाई होती जाती है, त्यों-त्यों भोगेच्छाएं स्वतः जिज्ञासा में विलीन होती जाती हैं । जिस काल में भोगेच्छाओं का सर्वांश में अन्त हो जाता है उसी काल में जिज्ञासा स्वत: पूरी हो जाती है, अर्थात् अमरत्व की प्राप्ति हो जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 34-35)

Wednesday 11 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 11 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व

          यदि किसी कारणवश साधक अपने इन्द्रिय-ज्ञान पर बुद्धि-ज्ञान द्वारा विजयी न हो सके तो ऐसी दशा में साधकों को परस्पर मिलकर साधन-निर्माण के लिए विचार-विनिमय करना चाहिए । जिस प्रकार दो दीपक एक दूसरे के नीचे का अन्धकार मिटाने में समर्थ हैं; उसी प्रकार पारस्परिक विचार-विनिमय द्वारा सुगमतापूर्वक साधन-निर्माण हो सकता है । यह तभी सम्भव होगा, जब परस्पर में श्रद्धा, विश्वास तथा स्नेह की एकता हो और निस्संकोच होकर अपनी दशा एक दूसरे से कह सकें । इसी का नाम 'बाह्य सत्संग' है ।

अब यदि कोई यह कहे कि हमें तो ऐसे साथी ही नहीं मिलते कि जिनके साथ विचार-विनिमय कर सकें । ऐसी दशा में जिस किसी सद्ग्रन्थ पर अपना विश्वास हो, उसके प्रकाश में अपने दोष देखें और निवारण के लिए साधन का निर्माण करें । यदि किसी सद्ग्रन्थ पर भी विश्वास न हो, तो केवल साधन-निर्माण की तीव्र लालसा जागृत करें । ज्यों-ज्यों लालसा सबल तथा स्थाई होती जाएगी, त्यों-त्यों साधन-निर्माण की योग्यता अथवा अनुकूल परिस्थिति उस अनन्त की अहैतुकी कृपा से स्वत: प्राप्त होती जाएगी; क्योंकि कर्तव्य-ज्ञान के लिए विवेक के स्वरूप में जिसने गुरु प्रदान किया है, वही सत्संग एवं सद्ग्रन्थ के स्वरूप में भी गुरु प्रदान कर सकता है ।

गुरु की प्राप्ति में एकमात्र गुरु की आवश्यकता ही हेतु है । अत: गुरु की आवश्यकता गुरु से मिला देती है, यह निर्विवाद सत्य है । इस दृष्टि से प्रत्येक साधक, साधन-निर्माण करके उस साध्य से अभिन्न होने में सर्वदा स्वतन्त्र है, जो वास्तविक जीवन है ।


 - ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 32-33)

Tuesday 10 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 10 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व

बुद्धि के सम होते ही निज-ज्ञान का प्रकाश बाह्य ज्ञान को अपने में विलीन कर लेता है । फिर राग-विरागरहित अलौकिक दिव्य-जीवन से अभिन्नता हो जाती है । इस दृष्टि से साधक बाह्य ज्ञान से विमुख होकर निज-ज्ञान का आदर करके सुगमतापूर्वक साधन होकर साध्य से अभिन्न हो सकता है ।

साधन-तत्व साध्य से भी अधिक महत्व की वस्तु है, क्योंकि साध्य तो प्रमाद का प्रकाशक है, नाशक नहीं; किन्तु साधन-तत्व प्रमाद को खाकर साधक को साध्य से अभिन्न भी कर देता है; कारण, कि सत् असत् का नाशक नहीं होता, अपितु प्रकाशक होता है, किन्तु सत् की लालसा असत् को खाकर सत् से अभिन्न कर देती है । इस दृष्टि से गुरु-तत्व साध्य-तत्व से भी अधिक महत्व की वस्तु है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 31-32)

Monday 9 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 09 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व

साधन-तत्व ही गुरुतत्व है जो सर्वदा साधक में विद्यमान है । इस दृष्टि से साधक, साधन और साध्य में जातीय एवं स्वरूप की एकता है; क्योंकि तीनों एक ही धातु से निर्मित हैं; कारण, कि साधन-तत्व साध्य का साभाव और साधक का जीवन है । अत: साधक 'साधन' होकर साध्य से अभिन्न हो सकता है । साधक की साधन-तत्व से अभिन्नता ही वास्तविक गुरु की प्राप्ति है, जो जीवन में एक बार ही होती है और जिसके होते ही गुरु और शिष्य अभिन्न हो जाते हैं । यही वास्तविक गुरु सेवा तथा गुरुभक्ति है ।

अब यदि कोई यह कहे कि जब साधन-तत्व साधक में विद्यमान है, तब साधक को प्रमाद क्यों हो जाता है ? तो कहना होगा कि निज-ज्ञान के अनादर से । निज-ज्ञान का अनादर होता है, बाह्य ज्ञान की आशा तथा विश्वास से । इन्द्रियजन्य ज्ञान बुद्धिजन्य ज्ञान की अपेक्षा बाह्य है और बुद्धिजन्य ज्ञान निज-ज्ञान की अपेक्षा बाह्य है । यदि इन्द्रियजन्य ज्ञान का आदर तथा उस पर विश्वास न किया होता, तो किसी प्रकार के राग की उत्पत्ति ही नहीं हुई होती । यदि, राग की उत्पत्ति न होती, तो किसी दोष का जन्म ही नहीं होता ।

यदि बुद्धि के ज्ञान से इन्द्रियों के ज्ञान पर अविश्वास कर लिया जाए, तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक राग 'वैराग्य' में बदल सकता है; क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान वस्तु में सत्यता तथा सुन्दरता का दर्शन कराता है, जिससे कि वस्तुओं से राग की उत्पत्ति हो जाती है, बुद्धि का ज्ञान उसी वस्तु में मलिनता तथा क्षण भंगुरता का दर्शन कराता है, जो राग को  'वैराग्य' में परिवर्तित करने में समर्थ है । जब राग 'वैराग्य' में बदल जाता है, तब 'भोग' 'योग' में परिणत हो जाता है, अथवा यों कहो कि इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं और मन नि:संकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है, जिसके होते ही बुद्धि सम हो जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 30-31)

Sunday 8 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 08 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व

यह नियम है कि जब प्राणी अपनी दृष्टि में अपने को आदर के योग्य नहीं पाता अर्थात् दोषी पाता है, तब उसमें एक गहरी वेदना जागृत् होती है, जो दोषों को मिटाने में समर्थ है; कारण, कि दोषों से रस लेने से ही दोष सुरक्षित रहते हैं । जब दोषों से वेदना उत्पन्न होने लगती है, तब वे स्वत: मिट जाते हैं, अथवा यों कहो कि साधक में दोष मिटाने की सामर्थ्य आ जाती है ।

इस दृष्टि से अपने दोषों का ज्ञान और उनके होने की वेदना ही निर्दोष होने के साधन हैं । हाँ, यह अवश्य है कि अपने ज्ञान से जो अपना गुण देखेगा, वह साधन-निर्माण नहीं कर सकेगा; क्योंकि गुण देखने से गुणों का अभिमान होगा, जो सभी दोषों का मूल है । अत: प्राप्त गुरु का आदर वही कर सकता है, जो अपना गुण नहीं देखता, अपितु दोष देखता है ।

दोष का ज्ञान जिससे होता है, उस ज्ञान का कभी नाश नहीं होता । केवल प्रमादवश साधक प्राप्त ज्ञान का अनादर करने लगता है । ज्ञान का अनादर ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु अल्प ज्ञान है, जो सभी दोषों का मूल है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 30)

Saturday 7 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 07 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व

अपने प्राप्त विवेक के आधार पर यदि साधन निर्माण करना है, तो सर्वप्रथम अपने प्राप्त ज्ञान से अपने दोषों को जानना होगा । जिस ज्ञान से दोषों का ज्ञान होगा, उसी ज्ञान में दोषों के कारण का ज्ञान भी विद्यमान है और उस कारण के निवारण का भी । अपने दोषों को जान लेने में कभी धोखा नहीं हो सकता, अपितु अपने दोषों का ज्ञान जितना अपने को होता है, उतना अन्य को हो ही नहीं सकता; कारण, कि दूसरों के सामने तो हम इन्द्रियों के द्वारा ही दोषों का वर्णन करेंगे । मन में जितनी सामर्थ्य है, उतनी इन्द्रियों में नहीं और बुद्धि में जितनी सामर्थ्य है, उतनी मन में नहीं । अत: बुद्धि की सारी बातें मन में नहीं आ पातीं और मन की सारी बातें इन्द्रियों में नहीं आ पातीं । इसलिए इन्द्रियों के द्वारा प्रकाशित किया जाने वाला दोष पूरा दोष नहीं हो सकता । जब तक दोष का पूरा ज्ञान न हो, तब तक कारण का ज्ञान और उसके निवारण का ज्ञान सम्भव नहीं है । अत: दोष देखने और निवारण करने के लिए साधक को अपने ही ज्ञान को अपना गुरु बना लेना चाहिए ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 29)

Friday 6 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 06 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

साधन-तत्व

जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि कर्तव्य का ज्ञान प्रत्येक कर्ता में निहित है, अर्थात् साधन-तत्व साधक में विद्यमान है । जब साधक अपने में विद्यमान साधन-तत्व का आदर नहीं करता, तब उसे बाहर से साधन-निर्माण की अपेक्षा होती है । यद्यपि साधन-तत्व ही गुरु-तत्व है, जो साधक में जन्मसिद्ध है, तथापि इस प्राप्त गुरु-तत्व का अनादर करने के कारण किसी अप्राप्त गुरु की अपेक्षा हो जाती है । इसका अर्थ किसी बाह्य गुरु का अनादर नहीं है; अपितु विद्यमान गुरु का अनादर न किया जाए, उसी के लिए यह कहना है कि प्रपने प्राप्त गुरु का आदर करो ।

जो साधक प्राप्त गुरु का आदर करता है, वह बड़ी ही सुगमतापूर्वक साधन-तत्व से अभिन्न होकर साध्य-तत्व को प्राप्त कर लेता है; क्योंकि अपने प्रति जितनी प्रियता होती है, उससे अधिक किसी अन्य के प्रति नहीं होती और अपनी अनुभूति के प्रति जितना सद्भाव तथा निस्संदेहता होती है, उतनी अन्य के प्रति नहीं होती । इस दृष्टि से अपनी अनुभूति के आधार पर जितनी सुगमतापूर्वक साधन-निर्माण तथा साधन-परायणता हो सकती है, उतनी किसी अन्य की अनुभूति द्वारा नहीं ।

इतना ही नहीं, जिस साधन के समझने की तथा करने की सामर्थ्य साधक में बीज-रूप से विद्यमान नहीं होती, वह साधन कोई भी किसी भी साधक को न तो समझा सकता है और न उससे करा ही सकता है । जिस प्रकार नेत्र को कोई शब्द नहीं सुना सकता और श्रोत्र को कोई रूप नहीं दिखा सकता, उसी प्रकार जिस साधन की सामर्थ्य साधक में नहीं है, उसको कोई बाह्य गुरु नहीं करा सकता । जिस बीज में उपजने की सामर्थ्य होती है, उसी को पृथ्वी, जल, वायु आदि उपजा सकते हैं । अत: साधक में विद्यमान साधना को ही बाह्य गुरु भी विकसित करने में सहयोग दे सकते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 28-29)