Monday 30 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 30 September 2013  
(आश्विन कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव !

        कल आपकी सेवा में निवेदन किया गया था कि जब तक हम अपना सुधार न करेंगे, तब तक सुन्दर समाज का निर्माण न हो सकेगा । अपनी सुन्दरता में ही सुन्दर समाज निहित है, चाहे हम अपने को राष्ट्र के रूप में, अन्तर्राष्ट्रीय रूप में, समाज के रूप में, व्यक्तिगत जीवन को सामने रखकर अथवा किसी भी दृष्टिकोण से देखें, तो मानना पड़ेगा कि जब तक हम अपने सुधार में रत न होंगे, सुन्दर समाज का निर्माण न होगा ।

        सुन्दर समाज का निर्माण और अपना कल्याण, ये दोनों ही मानव के उद्देश्य हैं, लक्ष्य हैं । इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अपना कल्याण पहले करना होगा अथवा सुन्दर समाज का निर्माण ? तो, ऐसा जान पड़ता है कि ये दोनों ही उद्देश्य भिन्न नहीं हैं, एक ही हैं । ज्यों-ज्यों सुन्दर समाज का निर्माण होता जाता है, त्यों-त्यों अपना कल्याण भी होता जाता है और ज्यों-ज्यों अपना कल्याण होता जाता है, त्यों-त्यों सुन्दर समाज का निर्माण भी होता जाता है । कारण कि, जीवन एक ही है, दो नहीं; समाज और संसार भी एक ही है, दो नहीं । जब जीवन एक है, तो अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण एक ही जीवन के दो पहलू हैं । इनमें से हम किसी भी पहलू पर विचार करें या उसको ठीक करें, दूसरा पहलु अपने आप उसके साथ ठीक हो जाता है । 

        उदाहरणार्थ यदि किसी ने अपने जीवन से दूसरे के अधिकार की रक्षा कर दी, तो इसका परिणाम यह होगा कि वह अपने को अपने उस साथी से मुक्त अनुभव करेगा । यह नियम है कि जिसकी सेवा कर दी जाती है, उसका राग स्वत: मिट जाता है। तो दूसरों के अधिकार की रक्षा से अपने में जो छिपा हुआ राग था, उसकी निवृत्ति हुई । उस राग के निवृत्त होने पर योग का हो जाना स्वाभाविक है । कारण कि, राग से ही भोग का जन्म होता है और राग-रहित होने से योग स्वतः प्राप्त होता है । इस योग का अर्थ है - चित्त-वृत्तियों का सब ओर से हटकर किसी एक ओर लग जाना, अथवा यों कहें कि 'पर' से हटकर 'स्व' में विलीन हो जाना, अथवा यों कहें कि राग से रहित होकर चित्त का वीतराग हो जाना । चित्त की वीतरागता का ही दूसरा नाम योग है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 30-31) ।

Sunday 29 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 29 September 2013  
(आश्विन कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        विवेक-युक्त जीवन ही वास्तव में मानवता है । उसी के आधार पर जब हम अपने को सुन्दर बनाते हैं, तो वही वास्तविक व्यक्तिवाद है और जब अपने चरित्र द्वारा मानवता का प्रसार समाज में किया जाता है, तो वही वास्तविक समाजवाद है । उस मानवता को ही विधान का रूप देकर जब बल-प्रयोग द्वारा समाज में प्रसार करने का प्रयास किया जाता है तो वही वास्तव में राष्ट्रवाद है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि निज-विवेक के प्रकाश में साधन-युक्त जीवन से निर्दोषता प्राप्त करना ही मानवता है और वही मानवता स्थल-भेद से, कहीं व्यक्तिवाद, कहीं राष्ट्रवाद, कहीं समाजवाद आदि मान्यताओं से नाम तथा आदर पाती हैं ।

        मानवता प्राप्त करने में सभी भाई-बहिन सर्वथा स्वतन्त्र हैं। हमसे कोई ऐसा कार्य न हो, जिसे हम अपने साथ कराना नहीं चाहते । और जो हम अपने प्रति दूसरों से कराना चाहते हैं, - वह हम दूसरों के प्रति करने के लिए सर्वदा उद्यत बने रहें । तभी हम अपने में विद्यमान मानवता को विकसित कर सकेंगे । मानवता विकसित हो जाने पर जीवन की सभी समस्याएँ हल हो जायेंगी। अत: मानव को अपने में छिपी हुई मानवता को विकसित करने के लिए सर्वदा अथक प्रयत्न करना चाहिए । मानवता आ जाने पर ही हम सुन्दर होंगे, हमारा समाज और राष्ट्र सुन्दर होगा। मानवता में ही हमारा कल्याण तथा सुन्दर समाज का निर्माण निहित है ।। ऊँ । ।

- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 29-30) ।

Saturday 28 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 28 September 2013  
(आश्विन कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        अब प्रश्न यह होता है कि हम अपने गुरु, नेता या शासक कैसे बनें ? भौतिकवाद की दृष्टि से मानव-मात्र को जो विवेक प्राकृतिक नियमानुसार मिला है, आस्तिकवाद की दृष्टि से जो विवेरु प्रभु की अहैतुकी कृपा से मिला है और अध्यात्मवाद की दृष्टि से जो अपनी ही एक विभूति है, वह विवेक ही वास्तव में गुरु, नेता तथा शासक है, जो प्रत्येक भाई-बहिन को स्वतः प्राप्त है । पर, खेद तो यह है कि हम उस विवेक का प्रयोग समस्त जीवन पर न करके, समाज पर करने की सोचते हैं । समाज इन्द्रिय-जन्य ज्ञान पर ही विश्वास करता है। वह जैसा देखता है, वैसा बनता है । जिस चरित्र को हम अपने जीवन से नहीं दिखा पाते, केवल समझा कर समाज में उसका प्रचार करना चाहते हैं, अथवा यों कहो कि शासक बनकर बल-प्रयोगसे उसे समाज द्वारा मनवाना चाहते हैं अथवा गुरु  बनकर समाज के जीवन में उसे ढालना चाहते हैं; यह वास्तव में सम्भव नहीं है ।

        मानव को विवेक स्वयं 'मानव' होने के लिए मिला है । अत: यह अनिवार्य हो जाता है कि हम अपने विवेक से अपने ही दोषों का दर्शन करें और तप, प्रायश्चित्त एवं प्रार्थना आदि व्रतों द्वारा अपने को निर्दोष बनायें । प्रायश्चित्त तथा तप द्वारा अपने पर शासन हो सकता है और प्रार्थना द्वारा हम आवश्यक बल प्राप्त कर सकते हैं और शुद्ध सङ्कल्पों का व्रत लेकर हम अपने पर नेतृत्व कर सकते हैं । जिस जीवन से बुरे सङ्कल्प मिट जाते हैं, उस जीवन से समाज में स्वत: शुद्ध सङ्कल्पों का प्रचार हो जाता है। यह नियम है कि सङ्कल्प-शुद्धि से कर्म-शुद्धि स्वत: हो जाती है। शुद्ध सङ्कल्पों का प्रचार हो जाना ही समाज का वास्तविक नेतृत्व है । विवेक का आदर होने लगे, यही वास्तव में गुरुत्व है। विवेकी-जनों से ही विवेक के आदर का प्रचार होता है । शुद्ध सङ्कल्प-युक्त जीवन से ही शुद्ध सङ्कल्प व्यापक हो जाते हैं; और प्रायश्चित्त तथा तप-युक्त जीवन से ही समाज के प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति में अपने पर शासन करने की भावना उत्पन्न हो जाती है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 28-29) ।

Friday 27 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 27 September 2013  
(आश्विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        अब आप लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि यदि पर-दोष दर्शन न करें, तो माता-पिता बालकों का, गुरुजन शिष्यों का, राष्ट्र प्रजा का सुधार कैसे करें ? क्योंकि इनमें अपने दोष देखने की सामर्थ्य है ही नहीं । परन्तु, यह सन्देह निर्मूल है। जो जिस अवस्था में होता है, वह उस अवस्था के दोषों को भी जानता है; क्योंकि प्राकृतिक नियमानुसार मनुष्य-मात्र को अपने दोष देखने का विवेक स्वत: प्राप्त है । बालक बालकपन के दोष अवश्य देख लेगा, युवक युवावस्था के दोष अवश्य देख  लेगा, विद्यार्थी विद्यार्थी-अवस्था के दोष अवश्य देख लेगा, विद्वान् विद्वत्ता के दोष अवश्य देख लेगा; महाजन और मजदूर भी अपनी-अपनी अवस्था के दोष अवश्य देख लेंगे ।

        कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी-अपनी परिस्थितियों में अपने-अपने दोषों का दर्शन सभी को सम्भव है । आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं । आवश्यकता इस बात की है कि हमारे द्वारा हमारे साथी के प्रति कोई दोषयुक्त व्यवहार न हो। इस बात की आवश्यकता नहीं कि हम अपने विवेक से अपने साथी के दोष देखें । आप कहेंगे कि इस सिद्धान्त के अनुसार तो आपने गुरुजनों, नेताओं और सुधारकों का काम ही समाप्त कर दिया । नेता का काम है कि वह समाज को दोष-दर्शन कराये और उसके मिटाने का उपाय बताये । गुरु का काम भी यही है कि वह अपने शिष्य के दोष-दर्शन कराये और उसे दोष मिटाने का उपाय बताये, जिससे शिष्य दोष-मुक्त हो जाय । 

        शासक भी यही सोचते हैं कि जिन पर वे शासन करते हैं, उनके दोष-दर्शन करायें और बल के द्वारा उनको निर्दोष बनाने का प्रयत्न करें । शासक, नेता और गुरु में थोड़ा-थोड़ा भेद है। शासक बल के द्वारा, नेता विधान के द्वारा और गुरु ज्ञान के द्वारा  सुधार करने का प्रयास करते हैं । यह अन्तर होते हुए भी तीनों ही सुधारने का दावा करते हैं । परन्तु भैया, मानवता तो एक  अनूठी प्रेरणा देती है और वह यह कि हमें नेता होना है, तो अपने ही नेता बनें, यदि हमें शासन करना है, तो अपने पर ही शासन करें, और यदि गुरु बनने की कामना है, तो अपने ही गुरु बनें। 

        मानवता के इस दृष्टिकोण को जब हम अपनायेंगे, तो हम अपने को ही अपना शिष्य, और अपने जीवन को ही अपना समाज और अपने चरित्र को ही अपनी प्रजा बना लेंगे । यह नियम है कि जो अपना गुरु बन जाता है, अपना नेता बन जाता है, और अपना शासक हो जाता है, वह सभी का गुरु, शासक और नेता बन जाता है । उसका जीवन ही विधान बन जाता है, जिसकी समाज को माँग है।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 26-28) ।

Thursday 26 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 26 September 2013  
(आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        वास्तव में हमें निष्पक्ष भाव से धैर्यपूर्वक अपने साथी के विवेक का पता लगाना चाहिए और सोचना चाहिए कि जो कुछ उसने किया है, क्या उसका विवेक भी वही कहता है ? यदि उसका कर्म उसके विवेक के विरुद्ध सिद्ध हो जाये, तो भी हम यही कहें कि भाई कोई बात नहीं, भूल हो ही जाती है; परन्तु हम और तुम साथ हैं । ऐसा करने से उसे अपने प्रमाद का ज्ञान हो जाएगा और वह उसे त्याग देगा । यह नियम है कि प्रमाद अपने ही ज्ञान से मिटता है, किसी दूसरे के ज्ञान से नहीं । इस प्रकार सुविधापूर्वक संघर्ष मिट जाएगा और हमारी और हमारे साथी की एकता सुरक्षित हो जायगी तथा भेद की खाई मिट जावेगी । यदि यह प्रयोग नहीं किया गया और अपने विवेक पर ही यह मान लिया गया कि उसका दोष अवश्य है, तो हमारे और हमारे साथी के बीच एकता कभी नहीं होगी; न आपस में प्रेम का ही उदय होगा । 

        हमारे और हमारे साथी के हृदय में प्रेम उदय हो और हमारा साथी निर्दोष हो जाय, इसके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने साथी के विवेक से ही उसको उसके अपने प्रमाद का बोध कराने का प्रयत्न करें; अपने विवेक द्वारा अपने साथी के प्रमाद का उसे बोध कराने का प्रयत्न न करें । अपने विवेक द्वारा तो हम केवल अपने ही प्रमाद को मिटाने का प्रयास करें । जब हम अपने विवेक द्वारा अपने प्रमाद को मिटायेंगे, तभी हम निर्दोष होंगे और हमारा साथी भी हमें निर्दोष मान लेगा । यह बड़े महत्व की बात है ।

        आज हम दूसरों के सर्टिफिकेट पर, अर्थात् दूसरों के आधार पर अपना महत्व आँक लेते हैं और यह समझ लेते हैं कि हम सचमुच ही वैसे बन गये, जैसे कि लोग हमें कहते हैं । परन्तु हमारी यह मान्यता किसी भी समय हमारे निर्बलतापूर्ण चित्र को समाज के सामने प्रकाशित कर देगी । हमें दूसरों की दी हुई महानता से सन्तोष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत अपनी दृष्टि में अपने को निर्दोष तथा महान बनाने का अथक प्रयत्न करना चाहिए । यह नियम है कि हम जैसे अपनी दृष्टि में हैं वैसे ही हम जगत् तथा नियन्ता की दृष्टि में हो जायेंगे । कारण कि, जो बात हम अपने से नहीं छिपा सकते, वह दूसरों से भी नहीं छिपा सकते। हमारी असली दशा के प्रकट होने में कुछ समय अवश्य लग सकता है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 25-26) ।

Wednesday 25 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 25 September 2013  
(आश्विन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        कर्त्तव्य पर ध्यान न देकर अधिकार-प्राप्ति के लिए मर मिटना गुण के रूप में दोष है  इस अमानवतापूर्ण दोष से बचने के लिए हमें निरन्तर सतर्क और प्रयत्नशील रहना चाहिए।  कर्तव्यपरायणता आ जाने पर अधिकार बिना माँगे ही आ जाएगा । यदि किसी की निर्बलता या उदारता से कर्त्तव्य के बिना अधिकार मिल भी गया, तो हम उसे सुरक्षित न रख सकेंगे, यह निर्विवाद सत्य है । अधिकार वही सुरक्षित रहता है, जो कर्तव्यपरायणता से स्वत: प्राप्त होता है । जब वीतराग पुरुषों के द्वारा तथा अपने अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि मानवता अपना लेने पर ही हम सुन्दर बनेंगे और हमारी सुन्दरता से ही सुन्दर समाज का निर्माण होगा; तब यह प्रश्न स्वत: उत्पन्न होता है कि मानव में मानवता कसे आये ? उसके लिए यह कहना होगा कि हमारा कर्म भाव-रहित न हो और भाव विवेक-शून्य न हो, अर्थात् हमारी भावनाएँ निज-विवेक से प्रकाशित रहें और हमारा कर्म भाव से प्रभावित हो ।

        यह नियम है कि कर्म में प्रवृत्ति जिस भाव से होती है, कर्म के अन्त में कर्त्ता उसी भाव में विलीन हो जाता है । और, फिर भाव विवेक से स्वत: अभेद हो जाता है, अर्थात् हमारा जीवन बन जाता है और फिर अविवेक तथा इसके कार्यरूप अनेक विकार सदा के लिए ही मिट जाते हैं । यही वास्तव में मानव-जीवन है, क्योंकि निर्विकार जीवन ही मानव-जीवन है । इस पर यदि विचार करें, तो एक बात बडे महत्व की प्रतीत होती है कि जब हमें अपने साथी का कोई कार्य ऐसा प्रतीत हो, जो हमें अपने लिए प्रतिकूल दिखाई देता हो अथवा अनुचित प्रतीत होता हो, तो हम अपने ऐसे ज्ञान के निर्णय को ही सत्य न मान लें, अपितु हम अपने साथी से पूछें कि भाई, यह बात जो तुम कह रहे हो, किस भावना से कह रहे हो; और जिस भावना से तुम कह रहे हो वह किस विवेक पर आधारित है ? ऐसा पहले हम अपने साथी से पता लगाने का प्रयत्न करें ।

        अगर वह वास्तव में आपका साथी है, तो बतायेगा कि उसने आपके साथ जो कटुता का व्यवहार किया वह अमुक भावना से किया और यदि उस साथी ने सचमुच किसी अशुद्ध भाव से व्यवहार किया होगा, तो या तो वह चुप हो जाएगा या लज्जित हो जाएगा अथवा अपनी बात बदल देगा । वह अपनी कटुता को आपके सामने प्रकट करने में असमर्थ हो जाएगा और आप उसके ही द्वारा उसके सत्य को जान लेंगे । परन्तु हम अपने साथी को इतना अवसर ही कहाँ देते हैं ? 

        हमसे प्राय: ऐसी भूल हो ही जाया करती है कि हम अपने विवेक के निर्णय पर ही दूसरे को असत्य जानकर बिगड़ने लगते हैं, क्रोध करने लगते हैं, और जो कहना चाहिए वह भी तथा जो नहीं कहना चाहिए वह भी कहने लगते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हमारा वह साथी हमारे मोहवश, भयवश अथवा अपनी निर्बलता के कारण थोड़ी देर के लिये भले ही चुप हो जाय और हमको राजी करने के लिए जो हम चाहते हों, वही कहने या करने लग जाय, परन्तु उसके मन में हमारे साथ सच्ची एकता न होगी। यह नियम है कि यदि मन में सच्ची एकता न होगी, तो वह एकता कालान्तर में मिट जायगी और आज जो हम एक साथ बैठकर परस्पर में सत्य को जानने का प्रयत्न कर रहे हैं, सम्भव है कि कल अपने-अपने पक्ष के अभिमान को लेकर आपस में संघर्ष करने लगें ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 23-25) ।

Tuesday 24 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 24 September 2013  
(आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        यदि कोई कहे कि अधिकार का क्या मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है? तो उसका उत्तर यही होगा कि अपने अधिकार की प्रियता से हम यह अनुभव करें कि दूसरों को भी अपना अधिकार प्रिय है और दूसरों की प्रियता की पूर्ति ही मानवता है । जैसे कि हम अपनी प्यास की वेदना के द्वारा दूसरों की प्यास बुझाने का प्रयत्न करते हैं, तो वास्तव में यही मानवता है । यदि कोई यह सन्देह करे कि हम अपने अधिकार न माँगें या प्राप्त अधिकारों की रक्षा न करें, तो हमारा अस्तित्व ही न रहेगा, क्योंकि प्राय: देखने में यही आता है कि सबल निर्बल के अधिकार का अपहरण कर लेते हैं । परन्तु इसी प्रमाद से तो एक वर्ग दूसरे वर्ग को मिटाने के लिए प्रयत्नशील होता है । यह सन्देह तभी सिद्ध होता, जब कर्त्तव्य-परायणता की बात किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष से ही कही जाती । जब कर्त्तव्यपरायणता का पाठ सभी व्यक्तियों, कुटुम्बों, वर्गों और दलों को पढना है और उसका अनुसरण करना है, तब उपर्युक्त सन्देह के लिये कोई स्थान नहीं रहता ।

        यह पाठ मानवता का पाठ है । यह किसी जाति विशेष का नहीं, किसी वर्ग विशेष का नहीं, किसी दल विशेष का नहीं । यदि कोई यह सन्देह करे कि कर्त्तव्य की बात सदैव निर्बलों को बताई गई है, सबल निर्बलों के अधिकार का अपहरण करते रहे हैं और उन्हें अपनी खुराक बनाते रहे हैं, उसी का भयङ्कर परिणाम यह हुआ कि दुखी वर्ग का आकर्षण कर्त्तव्य की अपेक्षा अधिकार की ओर अधिक हो गया । तो क्या कमी कर्त्तव्य-शून्य अधिकार सुरक्षित रह सकेगा ? कदापि नहीं । 

        जिस दोष ने दूसरों का अधिकार छीनने की भावना जाग्रत कर दी, क्या उस दोष के रहते हुए हम अपना अधिकार सुरक्षित रख सकेंगे ? जिस दोष ने आज पहले वाले सबल को निर्बल बना दिया, क्या उस दोष को हमें अपने पास रखना चाहिये ।  उस दोष को रखकर क्या कालान्तर में हमारी वही दशा नहीं हो जायेगी, जो आज उन सबल लोगों की हुई, जिन्होंने अथवा जिनके पूर्वजों ने इस दोष को अपनाया ? हम लोगों को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि जो दोष गुण के वेष में आता है; वह बड़ा ही भयङ्कर तथा दुखद सिद्ध  होता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 21-23) ।

Monday 23 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 23 September 2013  
(आश्विन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        सुन्दर समाज का असली दृश्य क्या है ? जहाँ किसी विधान की आवश्यकता न हो, जहाँ बल के द्वारा किसी को बात मनवाने की आवश्यकता न हो। मुझ से कई मिलने वाले लोग कहते हैं कि अमुक देश बड़ा ही सुन्दर है, तो मैं पूछता हूँ कि क्या उस देश में पुलिस है ? क्या उस देश में फौज रखते हैं ? क्या उस देश में सी० आई० डी० है? क्या उस देश में न्यायालय है ? जब वे कहते हैं कि ये सब हैं । तो मैं कहता हूँ कि वहाँ जितना सुन्दर समाज होना चाहिए, उतना नहीं है । चाहे वह देश अन्य देशों से अधिक सुन्दर भले ही हो। आप विचार करें कि जिस शहर में ताला लगाना पड़ता है, क्या उसे सुन्दर शहर कहेंगे ? शहर में सुन्दर-सुन्दर सड़कें हो, सुन्दर- सुन्दर बगीचे हो, रहने के लिये सुन्दर बंगले हो, परन्तु जहाँ रहने वाले सुरक्षित न हो, तो क्या उसे सुन्दर शहर कहेंगे ? कभी नहीं। जहाँ दूकानदार को दूकान पर ताला लगाना पड़ता हो, चौकीदार रखने पड़ते हो, तो क्या आप कहेंगे कि वह हमारा कुटुम्ब, हमारा समाज और हमारा शहर सुन्दर है ? नहीं कह सकते ।

        जहाँ सुन्दरता आ जाती है वहाँ इन चीजों की जरूरत नहीं होती । न चौकीदार रखना पड़ता है और न ताला ही लगाना पड़ता है। सुन्दरता का वास्तविक अर्थ यह है कि हम सब अनेक होते हुए भी एक होकर रहें ।

        अब प्रश्न होता है कि एक कैसे हों ? यद्यपि सभी प्राणी सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में जडतायुक्त स्वरूप की एकता अनुभव करते हैं । परन्तु उस एकता का कोई महत्व नहीं है। वास्तविक महत्व तो उस एकता का है, जिसमें हम जाग्रत अवस्था में विविध प्रकार की भिन्नता होते हुए भी एकता का अनुभव करें । वह तभी सम्भव है, जब हम एकमात्र अपना कर्त्तव्य जानें और उसमें तत्पर हो जाएँ । आज जो हमें हमारे सुधारक, अधिकारों का गीत सुनाकर अपने अधिकार सुरक्षित रखने की प्रेरणा करते हैं, यह बात कब तक रहती है ? जब तक कि सुधारक महोदय किसी पद पर आरूढ़ नहीं हो जाते हैं । पद-प्राप्ति के बाद अधिकार का पाठ पढ़ाने वाले सुधारक महानुभाव हमारे अधिकार भूल जाते हैं और अपने अधिकारों का उपभोग करने लगते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 20-21) ।

Sunday 22 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 22 September 2013  
(आश्विन कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        सुन्दर जीवन की कसौटी यही है कि वह प्रीति से परिपूर्ण हो । प्रीति-युक्त जीवन ही सुन्दर जीवन है। ऐसे जीवन से ही प्रीति का प्रसार स्वयं होता है । प्रीति सीखने-सिखाने के लिए किसी पाठशाला की अपेक्षा नहीं है। व्यक्ति की कर्त्तव्य-निष्ठा ही समाज में प्रीति का प्रसार करती है। यह सभी का अनुभव है कि परस्पर प्रीति का संचार होने पर पशु संघर्ष स्वत: मिटने लगता है और संघर्ष मिटने पर एक अनुपम सन्तोष तथा एकता का उदय होता है । असन्तोष का मूल परस्पर का संघर्ष है संघर्ष का जन्म प्रीति के अभाव में होता है और प्रीति का अभाव तब होता है, जब हम कर्त्तव्य-निष्ठ न रहकर अपने साथी के अधिकार का अपहरण करते हैं। यह बात निर्विवाद है कि हमारे और समाज के बीच में अथवा एक दूसरे वर्ग के बीच में प्रीति के अभाव में ही संघर्ष होता है । अत: हम को कर्त्तव्यपरायणता से ही संघर्ष का अन्त करना है । उसके बिना सरकारी कानून का आधार लेना अमानवता है । जो सुन्दर समाज का स्वप्न कानून के बल पर देखना चाहते हैं, वे यह सोचते हैं कि जब हमारी सरकार सुन्दर बन जायगी या हम सरकार बन जायेंगे, तब हम सुन्दर समाज का निर्माण कर लेंगे। यह अपने को तथा समाज को धोखा देने वाली बात है । 

        जो कार्य केवल मानवता से ही हो सकता है उसे कानून, द्वारा पूरा करने का प्रयत्न केवल अपनी किसी अन्तर में छिपी हुई वासना की पूर्ति का प्रयास ही मानना चाहिये । हमारा समाज तभी सुन्दर होगा, जब हम कर्त्तव्य-परायण होंगे । जब हर एक भाई-बहिन यह सोचने लगे कि चाहे हमारे अधिकार सुरक्षित हो या न हो, हमें तो अपने कर्त्तव्य-पालन द्वारा अपने समाज के अधिकारों की रक्षा करनी है । प्रत्येक बहिन सोचे कि चाहे हमारा भाई आदर्श हो या न हो, हमें तो आदर्श बहिन होना ही चाहिए। प्रत्येक पत्नी सोचे कि पति आदर्श हो या न हो, हमें तो आदर्श पत्नी होना ही चाहिए । प्रत्येक पति यह सोचे कि पत्नी चाहे कर्कशा या कुरूपा क्यों न हो, हमें उसके अधिकारों का अपहरण नहीं करना है । ऐसे सुन्दर भाव यदि हर एक भाई-बहन के मन मैं जाग्रत् हो जायँ, तो आप देखेंगे कि आपको सरकार की भी आवश्यकता न होगी ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 19-20) ।

Saturday 21 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 21 September 2013  
(आश्विन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        आज हम स्वरूप से एकता करने की जो कल्पना करते हैं वह विवेक की दृष्टि से अपनों को धोखा देना है अथवा भोली-भाली जनता को बहकाना है । सोचिये कि, सुन्दर मकान क्या उसे कहेंगे जिसमें सब कमरे समान हो अथवा उसे कहेंगे जिसमें सब कमरे अपने-अपने कार्य के लिए उपयुक्त हों? जैसे शौचालय अपने स्थान पर ठीक हो, रसोईघर अपने स्थान पर ठीक हो, बैठने का कमरा अपने स्थान पर ठीक हो, सोने का कमरा अपने स्थान पर ठीक हो, कार्य करने का कमरा अपने स्थान पर ठीक हो । सब कमरे अपने-अपने स्थान पर ठीक हों, तो उन्हीं के समूह को आप सुन्दर मकान कहेंगे । इसी प्रकार सुन्दर शरीर आप उसे कहेंगे, जिसमें प्रत्येक अवयव अपने-अपने स्थान पर सही और स्वस्थ हो । सुन्दर समाज उसे कहेंगे, जिसका प्रत्येक वर्ग अपने-अपने स्थान पर सही हो, ठीक हो। कहने का तात्पर्य यह है कि सुन्दरता का अर्थ अनेक विभिन्नताओं का अपने-अपने स्थान पर यथेष्ट होना है । 

        अब विचार यह करना है कि जब हमें अपने अधिकार प्रिय हैं, तो हमारे अधिकार क्या होंगे ? हमारे अधिकार वही होंगे, जो हमारे साथियों के कर्तव्य हैं । और हमारे साथियों के अधिकार वे हैं, जो हमारे कर्त्तव्य हैं । हमारे अधिकार तभी सुरक्षित रह सकते हैं, जब हमारे साथी कर्त्तव्य-परायण हों; और हमारे साथियों के अधिकार तभी सुरक्षित होंगे, जब हम कर्त्तव्यनिष्ठ हों । हमारी कर्त्तव्यनिष्ठा ही हमारे साथियों में कर्तव्यपरायणता उत्पन्न करेगी; क्योंकि, जिसके अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं, उसके हृदय में हमारे प्रति प्रीति स्वतः उत्पन्न हो जाती है, जो उसे कर्त्तव्य-परायण होने के लिए विवश कर देती है ।

        अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि हमारी कर्त्तव्य-निष्ठा ही हमारे अधिकारों को सुरक्षित रखने में समर्थ है । यह भली-भाँति जान लेना चाहिए कि अधिकार कर्त्तव्य का दास है। हम अपने अधिकार की रक्षा में भले ही परतन्त्र हों, परन्तु इस बात में सर्वदा स्वतन्त्र हैं कि अपने साथियों के अधिकारों की रक्षा करें । इसमें कोई पराधीन नहीं है । तो आप विचार करें कि सुन्दरता समाज में कब आयेगी ? जब व्यक्ति में सुन्दरता हो तब आयेगी या समाज में सुन्दरता हो तब व्यक्ति में सुन्दरता आयेगी ?  

        इस दृष्टिकोण को सामने रखकर आप सोचें कि अपने को सुन्दर बनाने में हम पराधीन नहीं हैं । हमारा साथी सुन्दर हो, इसमें हम भले ही पराधीन हों । इससे यह सिद्ध हुआ कि जब हम स्वयं सुन्दर होने में स्वतन्त्र हैं, तो यह क्यों सोचें कि पहले हमारा साथी निर्दोष तथा सुन्दर हो ? प्रत्येक भाई-बहिन को यह सोच लेना चाहिए कि हम सुन्दर होने में स्वाधीन हैं और हमारे साथी को हमारी सुन्दरता की आवश्यकता भी है । तो हम पहले स्वयं ही सुन्दर बनेंगे । हमारी सुन्दरता स्वयं हमारे साथियोंको सुन्दर बनाने में समर्थ होगी । जिस प्रकार सुगन्धित पुष्प से स्वयं सुगन्ध फैलती है, उसी प्रकार सुन्दर जीवन से समाज में सुन्दरता फैलती है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 17-19) ।

Friday 20 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 20 September 2013  
(आश्विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        गम्भीरता से सोचिये, यदि समानता का अर्थ परिस्थितियों की एकता हो, तो समान परिस्थितियों मे गति स्वत: रुक जाती है। जैसे कल्पना करो, नेत्र और पैर में समानता हो जाय, नेत्र और पैर दोनों चलने लगें अथवा देखने लगें तो गति होगी क्या ? लेकिन नेत्रों में देखने की योग्यता है और पैरों में चलने की । दोनों में कर्म, गुण और आकृति की भिन्नता होते हुए भी प्रीति की एकता है, तभी गति सुचारु रूप से होती है ।

        इस दृष्टिकोण से मानना होगा कि परिस्थिति तथा अवस्था की समानता के द्वारा सुन्दर समाज का निर्माण नहीं हो सकता । गहराई से विचारिये तो परिस्थितियों की एकता प्राकृतिक नियम के सर्वथा प्रतिकुल है । परिस्थिति और गुणों की विभिन्नता होते हुए भी लक्ष्य और प्रीति की एकता होने से ही सुन्दर समाज का निर्माण सम्भव है । समान अवस्था सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में है, परन्तु उसमें जडतायुक्त शान्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यवहार की सिद्धि नहीं होती । जाग्रति और स्वप्न में कभी समान अवस्था नहीं हो सकती और इसी विषमता से व्यवहार सिद्ध होता है । यह प्रत्येक मानव का दैनिक अनुभव है । परन्तु परिस्थिति और अवस्था की विषमता में भी एक दूसरे के अधिकार की यदि रक्षा हो जाय, तो वहाँ विषमता में भी समानता ही मानी जायगी और परस्पर संघर्ष नहीं होगा । 

        कल्पना करो, एक रोगी है और एक डाक्टर । यदि दोनों की अवस्था एक हो जाय और फिर चिकित्सा हो, तो क्या यह समानता मानी जायगी ? किन्तु रोगी तो डाक्टर की आज्ञा माने और डाक्टर रोग का निदान एवं चिकित्सा करे तथा दोनों में स्नेह की एकता हो, तभी सुन्दरता आयेगी । हम तो आजकल समानता का यह अर्थ करने लगे हैं कि हम सब की परिस्थितियाँ एक हो जायँ, परन्तु यह मानवता और प्रकृति के बिलकुल विरुद्ध है। ऐसी समानता न कभी हुई है और न कभी होगी । हाँ, एक बात अवश्य है कि जहाँ दो आवश्यकताएँ एकत्र होती हैं, वहीं समाज बनता है; केवल एक आवश्यकता से समाज नहीं बनता ।

        जैसे जहाँ विद्यार्थी हो, पर विद्वान न हो, विद्वान हो पर विद्यार्थी न हो, महिला हो किन्तु पुरुष न हो, पुरुष हो किन्तु महिला न हो, महाजन हो किन्तु मजदूर न हो, मजदूर हो किन्तु महाजन न हो, वहाँ समाज नहीं बन सकेगा । समाज वहीं बनेगा जहाँ महिलायें और पुरुष दोनों हो, विद्यार्थी और विद्वान दोनों हो, महाजन मजदूर दोनों हो ।

        हम सुन्दर समाज उसे कहेंगे, जहाँ महाजनों के द्वारा मजदूरों के अधिकार सुरक्षित हो और मजदूरों के द्वारा महाजनों के अधिकार सुरक्षित हो; विद्वानों के अधिकार विद्यार्थियों द्वारा सुरक्षित हो; विद्यार्थियों के अधिकार विद्वानों द्वारा सुरक्षित हो; रोगी के अधिकार डाक्टर द्वारा सुरक्षित हो, डाक्टर के अधिकार रोगी द्वारा सुरक्षित हो आदि । जहाँ एक से अधिक वर्ग होते हैं वहीं समाज होता है । जहाँ एक वर्ग होता है वहाँ समाज नहीं होगा । केवल मजदूरों से समाज नहीं बनेगा, केवल महिलाओं से समाज नहीं बनेगा । तात्पर्य यह है कि दो आवश्यकतायें जहाँ एकत्र होती हैं, उसी का नाम समाज समझना चाहिए । जब तक किसी एक की आवश्यकता किसी दूसरे की आवश्यकता की पूरक न हो, तब तक समाज की स्थापना ही सिद्ध नहीं होती ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 15-17) ।

Thursday 19 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 19 September 2013  
(भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

सुन्दर समाज का निर्माण

मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव ! 

        कल आपकी सेवा में निवेदन किया था कि साधनयुक्त जीवन मानव-जीवन है । इस दृष्टि से हम सब साधक हैं और जो परिस्थिति हमें प्राप्त है, वह सब साधन-सामग्री है । इस साधन-सामग्री का उपयोग करना साधना है ।

        इस साधन के दो मुख्य अंग हैं - एक तो वह साधन कि जिससे अपना कल्याण हो और दूसरा वह जिससे सुन्दर समाज का निर्माण हो । अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण, यह मानव-जीवन की वास्तविक मांग है । जो लोग इन दोनों विभागों को जीवन की माँग नहीं मानते, वे वास्तव में विवेक दृष्टि से मानवता को नहीं जानने हैं । मानव-जीवन एक ऐसा महत्वपूर्ण जीवन है कि जिसको पाकर प्राणी सुगमतापूर्वक अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । कारण कि, मानव-जीवन में ऐसी कोई प्रवृत्ति, अवस्था एवं परिस्थिति नहीं है जो साधन-रूप न हो, अर्थात् यह जीवन साधन-सामग्री से परिपूर्ण है । 

        अब विचार यह करना है कि अपने कल्याण का अर्थ क्या है और सुन्दर समाज के निर्माण का अर्थ क्या है ? अपने कल्याण का अर्थ है-- अपनी प्रसन्नता के लिए अपने से भिन्न की आवश्यकता न रहे और सुन्दर समाज के निर्माण का अर्थ है कि जिस समाज में एक दूसरे के अधिकारों का अपहरण न होता हो। कुछ लोग सुन्दर समाज का अर्थ मानते हैं - सुन्दर-सुन्दर मकानों का निर्माण, सुन्दर-सुन्दर सड्कों का निर्माण,  सुन्दर-सुन्दर बगीचों का निर्माण । ये सब तो बाह्य चीजें हैं ।  

        वास्तव में सुन्दर समाज की कसौटी यह है कि जिस समाज में किसी के अधिकारों का अपहरण न होता हो । यदि किसी भाई-बहिन से पूछा जाय कि तुम अपनी समझ से किस  घर को सुन्दर कहते हो ? तो वे कहेंगे कि जिस घर में ऐसा कोई व्यक्ति न हो, जिसके अधिकार सुरक्षित न हो । उस घर को सभी लोग अच्छा घर मानेंगे, जहाँ कि वृद्धजन बालकों के अधिकारों को सुरक्षित रखते हों, और बालक वृद्धों के अधिकारों को सुरक्षित रखते हों, बहिन भाई के अधिकार को सुरक्षित रखती हो और भाई बहिन के अधिकार को सुरक्षित रखता हो । ऐसे ही पति पत्नी के अधिकार को सुरक्षित रखता हो और पत्नी पति के अधिकार को सुरक्षित रखती हो । वैसे ही समाज में मित्र-मित्र के और पड़ोसी-पड़ोसी के अधिकार को सुरक्षित रखता हो । 

        यानी जितने भी सम्बन्ध हैं, उनमें यदि एक दूसरे के अधिकार सुरक्षित रहते हैं, तो उस घर को, उस समाज को सुन्दर कहेंगे । तो सुन्दर समाज की पहिचान यह हुई कि जहाँ किसी के अधिकार का हनन न होता हो । कोई कहते हैं कि सर्वांश में समानता ही सुन्दर समाज का प्रतीक है । इस पर आप विचार करें, तो स्पष्ट हो जायगा कि समानता का यह अर्थ नहीं हो सकता कि हमारी सबकी परिस्थितियाँ एक हो जाएँ अथवा अवस्था एक हो जाय ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 13-15) ।

Wednesday 18 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 18 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        विवेक-शून्य सदाचार वृक्षों में भी है, परन्तु उन्हें मानवता नहीं मिलती, क्योंकि वे बेचारे जड़ता के दोष में आबद्ध हैं । संग्रह रहित बहुत से पशु भी होते हैं, परन्तु उन वेचारों को कोई साम्यवादी या परमहंस नहीं कहता । पराये बनाये घर में बहुत से पशु रह जाते हैं, पर उन्हें कोई विरक्त नहीं कहता । इससे यह सिद्ध हुआ कि विवेक-पूर्वक उदारता एवं त्याग से ही मानव 'मानव' होता है । अवस्था, कर्म, परिस्थिति, भाषा, वेष, मत, विचारधारा, दल, सम्प्रदाय आदि विविध भेद होते हुए भी मानवता हमें स्नेह की एकता की प्रेरणा देती है ।

        स्नेह की एकता संघर्ष उत्पन्न नहीं होने देती । संघर्ष का अभाव मानव को स्वभावत: प्रिय है, क्योंकि संघर्ष से किसी-न-किसी का विनाश होता है । अपनी विनाश किसी भी मानव के अभीष्ट नहीं है । कारण कि, प्राकृतिक नियमानुसार जिस विकास का जन्म किसी के विनाश से होता है, उसका विनाश स्वयं हो जाता है । अत: मानवता हमें उस विकास की ओर प्रेरित नहीं करती, जिसका जन्म किसी के विनाश से हो । यह भली-भाँति जान लेना चाहिये कि मानवता भौतिकवाद की दृष्टि से प्राकृतिक, आस्तिकवाद की दृष्टि से अपौरुषेय विधान और अध्यात्मवाद की दृष्टि से अपना ही स्वरूप तथा स्वभाव है। अतएव मानवता का त्याग किसी भी मानव को करना उचित नहीं है ।

        स्नेह की एकता आ जाने पर प्रेमी को प्रेमास्पद, योगी को योग, जिज्ञासु को तत्वज्ञान और भौतिकवादी को वास्तविक साम्य एवं चिर-शान्ति स्वत: प्राप्त होती है । स्नेह की एकता स्वार्थ को खा लेती है । उसके मिटते ही सर्वहितकारी प्रवृत्ति स्वत: होने लगती है, जिसके होने से सच्चा साम्य एवं शान्ति आ जाती है । स्नेह की एकता किसी भी प्रकार का भेद शेष नहीं रहने देती । भेद के गलते ही अहंभाव मिट जाता है और स्वत: तत्व-ज्ञान हो जाता है । स्नेह सब कुछ खाकर केवल प्रेम को ही शेष रखता है, जो प्रेमास्पद से अभिन्न करने में स्वत: समर्थ है ।

        मानवता हमें सभी मतों एवं सिद्धान्तों के द्वारा वास्तविक अभीष्ट तक पहुँचा देती है । अत: सब भाई-बहिनों को मानवता प्राप्त करने के लिये निज-विवेक के प्रकाश में अपनी योग्यता के अनुसार साधन निर्माण करने के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। यह नियम है कि अपनी योग्यतानुसार साधन-निर्माण करने से सिद्धि अवश्य होती है ।। ओउम् ।।

- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।

Tuesday 17 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 17 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        मानव-जीवन सुख-दुःख का भोग करने मात्र के लिए नहीं मिला है, अपितु उनके बन्धन से मुक्त होने के लिए मिला है । सुख-दुःख भोगने का अवसर तो मानव से अतिरिक्त अन्य योनियों में भी होता है । परन्तु, उन योनियों में सुख-दुःख से उपर उठने की योग्यता नहीं है । कारण कि, उन योनियों में विवेक का प्रकाश मानव के समान नहीं है । प्राकृतिक नियमानुसार जिन योनियों में विवेक की कमी है, अर्थात् विवेक सुषुप्तवत् है, उन योनियों में सुख-दुःख भोगने की मर्यादा भी स्वत: सिद्ध है । जैसे, पशु यदि भूखा हो और उसका खाद्य-पदार्थ उसके निकट हो, तो वह अपने को रोक नहीं सकता, परन्तु साथ ही बची हुई खुराक का संग्रह भी नहीं कर सकता । 

        मानव भले ही अपनी गाय के लिए चारा संग्रह करे, परन्तु बेचारी गाय अपने लिए चारा संग्रह नहीं कर सकती । मानव भूखा हो और अनुकूल भोजन भी प्राप्त हो, परन्तु भोजन  करना यदि उसकी मर्यादा के प्रतिकूल हो, तो वह भूखा रह जायगा । किन्तु कभी स्वाद अथवा आदर की आसक्ति से प्रेरित  होकर वह बिना भूख भी खा लेता है । 

        इससे यह सिद्ध हुआ कि मानव वह भी कर लेता है जो उसे करना चाहिये, और प्रमादवश वह भी कर बैठता है जो उसे नहीं करना चाहिये । अपौरुषेय विधान में मानव को ऐसी स्वाधीनता क्यों मिली ? पशुओं की भाँति वह पराधीन क्यों  नहीं बनाया गया ? इसका प्रधान कारण यह है, कि मानव को उस विधान में विवेक मिला है । जिस उदार ने विवेक प्रदान किया, उसने मानव की ईमानदारी पर विश्वास किया कि वह उसका आदर अवश्य करेगा । तो क्या हमें अपने उस दाता के प्रति विश्वासधाती होकर विवेक का अनादर करना चाहिये ? विवेक के अनादर से ही हम वह कर बैठते हैं जो हमें नहीं करना चाहिये ।

        वास्तव में जो नहीं करना चाहिये उसे करने का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । यह नियम है कि जो नहीं करना चाहिये, वह न करने से जो करना चाहिये, वह स्वत: होने लगता है। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जो नहीं करना चाहिए, उसका न करना ही मानव का परम पुरुषार्थ है और उसी का नाम मानवता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 10-11) ।

Monday 16 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 16 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        दोष उसे नहीं कहते जो बिना जाने किया जाए । किये हुए दोषों को दबाने के लिये जो प्रयास है, वही गुण का अभिमान है । विवेकपूर्वक दोष का त्याग ही की हुई भूल का प्रायश्चित्त है, गुण का अभिमान नहीं। जब हमने मिथ्या बोल कर, मिथ्या बोलने को न दोहराने का प्रायश्चित्त किया, तो फिर 'मैं सत्यवादी हूँ' ऐसे अभिमान के लिए कोई स्थान ही नहीं है । परन्तु हम अभिमान कर बैठे, जिसने सत्यवादी तो बना दिया, परन्तु भेद उत्पन्न करके नये दोषों की उत्पत्ति कर दी । यदि आज हमारे जीवन में गुणों का अभिमान न रहे, तो हम परस्पर विचार-भेद, वर्ग-भेद, सम्प्रदाय-भेद आदि के होने से प्रीति-भेद अथवा लक्ष्य-भेद को न अपनाएँ, जो वास्तव में अमानवता है । मानवता प्रीति भेद को समाप्त कर बाह्य और अन्तर के संघर्ष को भी खा लेती है ।

        अब रही बात दुःख के सदुपयोग की । दुःख का सदुपयोग विरक्ति है । विरक्ति का अर्थ रूठकर अकेले बैठ जाना नहीं है, और न केवल अनिकेत (गृहहीन) हो जाना और न नंगा हो जाना है। यह सब तो विरक्त का बाह्य श्रृंगार-मात्र है । विरक्ति का वास्तविक अर्थ है, इन्द्रियों के विषयों से अरुचि अर्थात् भोग की अपेक्षा भोक्ता का मूल्य बढ़ा लेना । भोक्ता भोग के बिना भी सहर्ष रह सके, यही उसका मूल्य बढ़ जाना है । अब प्रश्न यह है कि भोग भोक्ता को प्रकाशित करता है या भोक्ता भोग को? यह तो मानना ही होगा कि भोक्ता जिस भोग को अपना कहता है, उस भोग ने भोक्ता को कभी अपना नहीं कहा, और न भोक्ता की सत्ता के बिना भोग प्रकाशित हुआ । भोग और भोगने के साधन इन दोनों को भोक्ता ही प्रकाशित करता है । जैसे, देखने की रूचि ही नेत्र तथा रूप को प्रकाशित करती है । नेत्र में देखने की क्रिया है, देखने की रुचि नहीं । देखने की रुचि तो उसमें है जो नेत्र को अपना मानता है अथवा यों कहो कि, जो उसके अभिमान को स्वीकार करता है ।

        यदि भोक्ता भोग की रुचि का त्याग कर दे, तो सभी भोगों और भोग के साधनों का कोई महत्व नहीं रह जाता । इतना ही नहीं, वे अपनी-अपनी सत्ता को त्याग कर भोक्ता में विलीन हो जाते हैं । फिर जो भोग का प्रकाशक था, उसो की सत्ता शेष रह जाती है । भोग और भोगने के साधनों का अस्तित्व नहीं रहता और न किसी प्रकार की विषमता शेष रहती है । उसके मिटते ही चिर-शान्ति तथा स्थायी प्रसन्नता आ जाती है, जो दु:ख को खाकर अनन्त चिन्मय जीवन से अभिन्न कर देती है । इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि सुख-दुःख का सदुपयोग मानवता है, जो हमें सुख-दुःख से मुक्त करने में समर्थ है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 8-10) ।

Sunday 15 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 15 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        यह नियम है कि जो प्रवृत्ति जिस सद्भावना से प्रेरित होकर की जाती है उस प्रवृत्ति का कर्त्ता उसी भावना में विलीन हो जाता है । अत: प्रभु के नाते की हुई प्रवृत्ति जीवन को प्रभु के प्रेम से भर देती है, सर्वात्म-भाव से की हुई प्रवृत्ति आत्मरति उत्पन्न कर देती है और विश्व के नाते की हुई प्रवृत्ति विश्व के प्यार से भर देती है। प्रेम, रति तथा प्यार में यह सामर्थ्य है कि वे किसी प्रकार का स्वार्थ-भाव तथा भोग-वासना शेष नहीं रहने देते । यह प्रत्येक भाई-बहन का अनुभव है कि स्वार्थ-भाव तथा भोग-वासना के बिना किसी भी दोष की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अर्थात् जीवन निर्दोषता से परिपूर्ण हो जाता है । यह भी नियम है कि दोष की पुनरावृत्ति न होने पर सभी दोष स्वत: मिट जाते हैं, क्योंकि दोषों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, किसी गुण के अभिमान पर ही वे जीवित रहते हैं । निर्दोषता दोषों को उत्पन्न नहीं होने देती और गुणों के अभिमान को भी खा लेती है, यह उसका स्वभाव ही है।  गुणों का अभिमान तब होता है, जब प्राणी स्वाभाविक गुणों को त्यागकर दोषों को अपनाने के पश्चात् पुन: बलपूर्वक दोषों को दबाता है और जीवन में गुणों की स्थापना करता है ।

        यह नियम है कि कर्त्तृत्वाभाव से जिसकी स्थापना की जाती है, वह स्वाभाविक नहीं होती और जो स्वाभाविक नहीं है, उसको अभिमान के बल से जीवित रखना पड़ता है । अभिमान भेद उत्पन्न करता है और भेद प्रीति को सीमित कर देता है। सीमित प्रीति दोषों को जीवित रखती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जब तक हमारे जीवन में कोई भी गुण कर्त्तव्य के अभिमान के साथ रहता है, तब तक उसके आधार पर दोषों को जीवन मिलता रहता है, क्योंकि गुण को, जो स्वाभाविक सत्ता थी, अपनी स्थापित की हुई वस्तु मान लिया गया है । जैसे मिथ्या बोलने से पूर्व सभी सत्य बोलते थे, किसी ने आरम्भ से ही मिथ्या नहीं बोला । मिथ्या बोलने का स्वभाव तो निज-विवेक का अनादर करके उत्पन्न किया था ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 7-8) ।

Saturday 14 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 14 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        जब प्राणी इन्द्रियों के ज्ञान को ही पूरा ज्ञान नहीं मानता, तब बुद्धि के ज्ञान का आदर करने लगता है । बुद्धि का ज्ञान वस्तु, अवस्था और परिस्थितियों की नित्यता को खा लेता है और उनमें सतत् परिवर्तन का दर्शन कराता है, जिससे राग वैराग्य में बदलने लगता है और भोग योग में बदल जाता है । योग हमें जड़ता से चिन्मयता और पराधीनता से स्वाधीनता एवम् अनित्य से नित्य की ओर प्रेरित कर देता है, अर्थात् विषयों से विमुख होकर इन्द्रियाँ मन में और मन बुद्धि में विलीन हो जाता है । मन के विलीन होते ही बुद्धि सम हो जाती है । बस, यही योग है । इसके दृढ़ होने पर जो बुद्धि से परे अलौकिक विवेक है उससे अभिन्नता हो जाती है और अविवेक सदा के लिये मिट जाता है । विवेक से अभिन्न होते ही अमर जीवन की प्राप्ति होती है, जो मानव की माँग है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि अलौकिक विवेक के आदर से ही हम अपना कल्याण तथा सुन्दर समाज का निर्माण कर सकते हैं, जो मानवता है । 

        यह मानवता हमें सुख-दुःख का सदुपयोग करने के लिये मिली है, इनके उपभोग-मात्र के लिये नहीं । यदि प्राकृतिक नियमानुसार विचार किया जाय, तो सुख-दुःख का उपभोग तो मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य योनियों में भी किया जा सकता है । सुख-दुःख का सदुपयोग करने पर मानव सुख-दुःख से अतीत जो अनन्त चिन्मय जीवन है, उससे अभिन्न हो सकता है। सुख का सदुपयोग उदारता और दुःख का सदुपयोग विरक्ति है। उदारता आ जाने पर हृदय पराये दुःख से भर जाता है और फिर मानव करुणित होकर प्राप्त सुख को दुखियों  को समर्पित कर देता है । करुण रस ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होता जाता है, त्यों-त्यों सुख की आसक्ति स्वत: गलती जाती है। सुखासक्ति गल जाने पर भोग वासनाएँ समाप्त हो जाती हैं ।  

        भोग-वासना मिटते ही तत्व जिज्ञासा स्वतः जागृत होती है, जो स्वत: पूर्ण हो जाती है । कारण कि, जिसमें जातीय तथा स्वरूप की एकता है, उसकी प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न अपेक्षित नहीं है, केवल उसकी आवश्यकता की जागृति ही उसकी प्राप्ति का उपाय है । अर्थात् उसके लिए कोई कर्म- अनुष्ठान अपेक्षित नहीं है । जिसके लिए किसी कर्म विशेष की अपेक्षा नहीं होती, उसके लिए किसी वस्तु, अवस्था, व्यक्ति अथवा परिस्थिति-विशेष की आवश्यकता नहीं होती । परिस्थितियों की आवश्यकता तो सुख-दुःख के भोगने के लिये ही होती है । यह अवश्य है कि परिस्थितियों से असंग होने के लिये प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना अनिवार्य है । आस्तिक परिस्थितियों का सदुपयोग अपने प्रभु के नाते करता है, अध्यात्मवादी सर्वात्म-भाव से करता है और भौतिकवादी विश्व के नाते करता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 5-7) ।

Friday 13 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 13 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        साधारणतया हम बुद्धि और विवेक को एक मान लेते हैं, परन्तु विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि बुद्धि तो एक प्राकृतिक यन्त्र के समान है और विवेक प्रकृति से अतीत अर्थात् अलौकिक तत्व है । जैसे, बिद्युत एक शक्ति है और उसका प्रकाश सर्व साधारण को बल्ब आदि के साधनों द्वारा प्रतीत होता है; विज्ञान का ज्ञाता ही इस बात को जानता है कि प्रकाश बल्ब का नहीं, विद्युत का है । इसी प्रकार साधारण प्राणी अलौकिक विवेक को बुद्धि का गुण मानता है; किन्तु तत्वदर्शी बुद्धि को विवेक का प्रकाश-मात्र मानता है ।

        विवेक अपरिवर्तनशील और बुद्धि परिवर्तनशील है । बुद्धि प्रकृति का कार्य है और विवेक प्रकृति से परे की अलौकिक विभूति है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से ही दीपक और विद्युत् का प्रकाश प्रकाशित होता है, उसी प्रकार अलौकिक विवेक के प्रकाश से ही बुद्धि और इन्द्रियों का ज्ञान प्रकाशित होता है । जब प्राणी अलौकिक विवेक के प्रकाश से अपनी बुद्धि को शुद्ध कर लेता है, तब शुद्ध बुद्धि मन को निर्मल कर देती है । और, मन की निर्मलता इन्द्रियों के व्यापार में शुद्धता का संचार कर देती है। इन्द्रियों के शुद्ध व्यापार से ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण होता है और सच्चरित्रता से समाज सुन्दर बनता है । अत: यह सिद्ध हुआ कि विवेक का आदर करने में ही सुन्दर समाज के निर्माण का सामर्थ्य निहित है और अपना कल्याण भी विवेक के आदर से ही सम्भव है ।

        इसके विपरीत जब प्राणी निज-विवेक का अनादर करता है, तब इन्द्रियों के ज्ञान को ही पूरा ज्ञान मान बैठता है, जो वास्तव में प्रमाद है । इन्द्रियों के ज्ञान को सही ज्ञान मान लेने पर राग उत्पन्न होता है । राग से भोग में प्रवृत्ति होती है, जो प्राणी में स्वार्थ-भाव दृढ़ कर देती है । स्वार्थ-भाव दृढ़ होते ही असीम प्यार मिट जाता है, जिसके मिटते ही देहाभिमान पुष्ट हो जाता है। देहाभिमान पुष्ट हो जाने पर भिन्न-भिन्न प्रकार की वासनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जो प्राणी को पराधीनता, जड़ता और शोक में आबद्ध कर देती हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 4-5) ।

Thursday 12 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 12 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        कर्म का सम्बन्ध वर्तमान से होता है और चिन्तन का भूत और भविष्य से। चिन्तन तो केवल उसी का करना है, जिसकी उपलब्धि कर्म से न हो । अपने कर्त्तव्य द्वारा परिस्थितियों का सदुपयोग न करने से परिस्थितियों में, अवस्थाओं में और वस्तुओं में आसक्ति दृढ़ हो जाती है, जो  साधन का निर्माण नहीं होने देती। हमारा वास्तविक जीवन सभी वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों से अतीत है । इस जीवन से देश-काल की दूरी नहीं है। हम निज-ज्ञान का अनादर करके अपने उस निज-जीवन से विमुख हो गये हैं। यह विमुखता प्रमादमात्र है और न जानने की दूरी उत्पन्न करती है । यह रहस्य जान लेने पर हम परिस्थितियों से असंग होकर अपने वास्तविक जीवन से अभिन्न हो जाते हैं, अथवा यों कहिये कि सभी परिस्थितियों से विमुख होकर अपने लक्ष्य के सम्मुख हो जाते हैं । परिस्थितियों के सदुपयोग अथवा उनसे विमुख होने में सब भाई-बहिन सर्वदा स्वतन्त्र हैं । कारण कि परिस्थितियों की आसक्ति केवल अविचार-सिद्ध है, जो निज-ज्ञान का आदर करने से स्वत: मिट जाती है और हम सुगमतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं।

        साधन रूप जीवन ही मानवता है, जो सब भाई-बहिनों में बीज रूप से विद्यमान है और जिसे प्राप्त विवेक के प्रकाश में विकसित करना है । कारण कि, विवेक का प्रकाश हमारे दोषों को मिटाने में समर्थ है । ज्यों-ज्यों हम अपने बनाये हुए दोषों को मिटाते जाते हैं, त्यों-त्यों हमारा जीवन साधन-युक्त होता जाता है। अपने बनाये हुए सभी दोष मिट जाने पर, समग्र जीवन ही साधन बन जाता है और साधन जीवन का केवल एक अंग मात्र नहीं रहता, अर्थात् जाग्रत अवस्था से सुषुप्ति पर्यन्त और जन्म से मृत्यु पर्यन्त प्रत्येक प्रवृत्ति साधन बन जाती है और यही मानव जीवन है । जीवन इस प्रकार का हो जाने पर, प्रत्येक साधक साधन-तत्व से अभिन्न हो जाता है । 

        सिद्धान्त रूप से देखा जाय तो साधन-तत्व साध्य का स्वभाव ही है । साध्य से साधन-तत्व को पृथक नहीं किया जा सकता । साधन-तत्व ही साधक का अस्तित्व है । इससे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि साधक की साध्य से जाति और स्वरूप की एकता है और भिन्नता तो केवल मानी हुई है, जो अवस्था और परिस्थितियों की आसक्ति से उत्पन्न हो गई है। उसे मिटाने में और जिससे जाति तथा स्वरूप की एकता है, उसे प्राप्त करने में साधक सर्वदा स्वतन्त्र है । अत: मानव को 'मानव' होने से निराश होने का कोई कारण नहीं है ?

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 2-4) ।

Wednesday 11 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

 मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव!

        मानव-जीवन बड़े ही महत्व की वस्तु है । मानव में बिज-रूप से मानवता विद्यमान है, उसे किसी अप्राप्त योग्यता की आवश्यकता नहीं है, किन्तु प्राप्त योग्यता के सदुपयोग की आवश्यकता है ।

        इस दृष्टिकोण को जब हम अपने सामने रखते हैं, तो हमारे जीवन में एक नवीन आशा का संचार होता है और निराशारूपी पिशाचिनी, जो जीवन के साथ है, भाग जाती है । जिस जीवन में हम अपनी कर्त्तव्य-परायणता से सुगमतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें, उसी जीवन का नाम मानव-जीवन है । इस बात की कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये कि हमारी साधन-सामग्री कैसी है, क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार सभी परिस्थितियों में साधन का निर्माण हो सकता है । हमें तो केवल यह देखना चाहिये कि हम अपनी प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक कितना सदुपयोग करते हैं । परिस्थितियों का सदुपयोग ही वास्तव में जीवन का आदर है ।

        आदर का अर्थ ममता अथवा मोह नहीं है । आदर का अर्थ है - परिस्थितियों को प्राकृतिक न्याय मानना या आस्तिक दृष्टि से अपने परम प्रेमास्पद का आदेश तथा सन्देश जानना । यह भलीभाँति जान लेना चाहिये कि प्राकृतिक न्याय में प्राणी का हित तथा उन्नति ही निहित है, अवनति नहीं । इसलिए प्रत्येक परिस्थिति का आदर करना ही उचित है । हमारे और आपके सामने इस समय सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हमारी बहुत-सी शक्ति अप्राप्त परिस्थिति के आह्वान तथा चिन्तन में ही वृथा व्यय हो जाती है, जिससे हम प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं कर पाते । अत: अप्राप्त परिस्थिति का व्यर्थ-चिन्तन त्याग कर शक्ति संचय करें और उसके द्वारा वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर डालें । यह नियम है कि वर्तमान के सदुपयोग से ही भविष्य उज्ज्वल बनता है, व्यर्थ-चिन्तन से नहीं । परिस्थिति का सदुपयोग कर्म से होता है । परिस्थितियों के चिन्तन से तो उनमें आसक्ति ही उत्पन्न होती है । अत: परिस्थितियों का चिन्तन कोई साधन नहीं, अपितु अनेक दोषों की उत्पत्ति का हेतु है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 1-2) ।

Tuesday 10 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 10 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        यह कथा मैं इसलिए सुना रही हूँ कि हमारे पारिवारिक परिवेश में बँधे हुए भाई-बहन जो हैं, वे हमेशा सत्संग के प्रोग्राम को भविष्य पर टालते रहते हैं । बच्चों की पढ़ाई खत्म हो जाए तब करेंगे और इतना यह काम पूरा हो जाए तो यह करेंगे, अब इतनी यह समस्या पूरी हो जाए तो यह करेंगे, तो अनुभवी संत की अनुभव भरी वाणी है ये कि माँग-पूर्ति का प्रोग्राम जो है, उसको एक क्षण के लिए भी भविष्य पर मत टालो। क्यों ? क्योंकि जो बात इसी वर्तमान में स्वयं अपने द्वारा सैल्फ कन्सैप्ट को बदल डालने से पूरी हो सकती है, उस बात के लिए किसी विशेष परिस्थिति पर क्यों निर्भर करते हो । मुझे अब रूचि-पूर्ति का सुख नहीं चाहिए, इस सत्य को स्वीकार करने में 2, 4, 5, 10 मिनट की देर लगाने की जरूरत है क्या? कि कपडा बदल लें कि स्नान कर लें तब ऐसा सोचेंगे, यह जरुरी है क्या ? जी ! कि घर में से निकल कर मन्दिर के दरवाजे जाकर बैठेंगे तब सोचेंगे । जरूरी है ? क्या जाने यहाँ से उठकर के मन्दिर तक जाने के पहले ही हार्ट फेल हो गया तो काम बाकी रह जाएगा ना! रह जाएगा ।  तो बड़ी भारी घाटा होगा । सत्य की स्वीकृति में अपने सैल्फ के प्रति अहम् के प्रति, अपने मैं के प्रति सही दृष्टिकोण को अपनाने में और गलत दृष्टिकोण को अपनाने में और गलत दृष्टिकोण का त्याग करने मैं किसी प्रकार की बाहरी तैयारी की जरुरत नहीं है । यह बात समझ में आती है ?

        तो अब सत्संग के प्रोग्राम के लिए भविष्य की प्रतीक्षा कभी मत करना । हाँ, जहाँ-जहाँ आप कमरों मैं ठहरे हुए हैं, ठण्डे जल से स्नान करने के फलस्वरूप घुटने मैं दर्द हो गया, बुखार आ गया, वहाँ से चला नहीं गया । तो यहाँ तक आप नहीं आ सकेंगे ऐसी सम्भावना है । वहाँ से उठ करके यहाँ तक आना कठिन हो सकता है, लेकिन जहाँ हैं वहीं पर और घुटने में दर्द को लिए हुए भी अपने प्रति दृष्टिकोण को बदलने में कोई बाधा नहीं हैं । यह सोचना कि हाय किसी प्रकार से ये दर्द छूट ही जाये और चलने के लायक हो ही जाए ऐसा सोचना, यह सत् का चिंतन होगा कि असत् का चिंतन होगा ? कैसा होगा बोलो ? असत् का चिंतन होगा । जिसकी उत्पत्ति हुई है उसका नाश तो कालान्तर में होगा ही। दर्द उत्पन्न हुआ है तो दर्द भी मिटेगा ओर शरीर उत्पन्न हुआ है तो शरीर भी मिटेगा, तो कहाँ तक उसका चिन्तन करोगे। 

        कहाँ तक उसकी फिक्र में रहोगे ? अगर इसको सँभालने की चिन्ता छोड़ करके जो स्वयं में ही विद्यमान है, उसपर दृष्टि चली गयी तो मेरा ऐसा विश्वास भी है और यह सत्य भी है कि अगर उस पर दृष्टि चली गयी तो तत्काल ही भीतर के आनन्द की तरंग में अहम् ऐसा अभिभूत हो जाता है कि कुछ काल के लिए शरीर का और दर्द का पता ही नहीं चलता है । ऐसा होता है और साधन काल में होता है । सिद्धि काल की चर्चा मैं नहीं करती हूँ। जीवन पूर्ण हो गया होता तो बोलने का काम भी खत्म हो गया होता । यह साधन काल की चर्चा में कर रही हूँ । थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बैठ करके, व्यक्तिगत सत्संग के क्रम में, विश्राम-सम्पादन के क्रम में, समर्पण योग में, आप थोड़ी-थोड़ी देर के लिए ठहरना पसंद करें तो उसी समय आपके अनुभव में यह बात आ जाएगी कि सत्य की अभिव्यक्ति में इतनी अलौकिकता है कि उस अलौकिकता के आराम में और उसके आनन्द में शरीर का भास खत्म हो जाता है । तो जो रहने वाली चीज है, उसी को सँभालना चाहिए हम लोगों को और इस बिगड़ने वाले का कुशल कब तक मनाओगे भाई ! हाय ! हाय ! इसलिए जो सेवा उसके प्रारब्ध से उसके लिए वर्तमान में उपलब्ध हो, उसकी समर्पण करके, इसको प्रणाम करके, इससे छुट्टी माँग के अपने जीवन में रहने का पुरुषार्थ आरम्भ करो । 

        भाई ! जो अपना है, उसमें रहने का पुरुषार्थ आरम्भ करो। जो सदा-सदा के लिए है, उसकी याद में मस्त हो जाओ । जो परम प्रेम का भण्डार है, उसके रस में जन्म-जन्मान्तर के सब विकारों को धोकरके परम विश्राम में बड़ा आनन्द लगता है । पता नहीं वह जीवन कहाँ तक जाता है, कितनी दूर तक जाता है, सो तो पता नहीं है, लेकिन थोड़ी सी झलक मिल जाती है जब, तो सारा संसार फीका लग जाता है । इतना काम तो इसी साधन काल में हो जाएगा । जरूर कर डालो ।

- 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 18-20) ।

Monday 9 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 09 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        संसार कैसा है ? ये कोई नहीं जानता, हम सब लोग संसार की तरफ देखते हैं तो एक ही दृश्य, एक ही घटना अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग अर्थ बताती है । होता है कि नहीं और एक ही व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाए तो सृष्टि बदल जाता है । सुख-भोग की दृष्टि से देखो तो संसार में बडा आकर्षण दिखायी देता है । और संत कबीर जी से पूछो तो क्या कहेंगे – “हाड़ जले जैसे लकड़ी, केश जले जैसे घास, सब जग जलता देखिकर कबिरा भया उदास ।'' तो वह ही संसार है कि दूसरा है ? वह ही है । तो भोगी को बड़ा आकर्षक लगता है, और विवेकी को काल की अग्नि में जल रहा है, सब जल रहा है, काल की अग्नि में सब भस्म हो रहा है । और कहीं प्रभु प्रेम के रस से दृष्टि ढक गयी तो  ''आप छके नैना छके, अधर रहे मुसकाय, छकी दृष्टि जा पर पड़े, रोम-रोम छक जाय ।'' अब क्या हो गया? संसार वही है कि दूसरा है ? वह ही है । तो ऐसा आप सोच करके देखेंगे कि व्यक्ति की, अपनी भूल से संसार की ओर खिंचाव लगता है । और मुझको बड़ा आश्चर्य लगता है, अपने पिछले दिनों की याद कभी-कभी आ जाती है तो ऐसी हँसी आती है कि कितनी नादानी की बात है । देख रहे हो कि सब दौड़-दौड़ करके, दौड़-दौड़ करके भागता जा रहा है ।

        सबमें परिवर्तन हो रहा है, कही एक क्षण के लिए ठहराव नहीं है और उसको पकड़ करके आदमी स्थिर होना चाहता है। कितनी बेवकूफी है बताओ तो सही ।  अरे जो भागता जा रहा है, वह तुमको विश्राम दे देगा । जिसमें निरन्तर गतिशीलता है, वह तुमको स्थिरता दे देगा । नहीं देगा ना ! तो इसका फल क्या होना चाहिए । इस अनुभव का फल यह होना चाहिए कि भाई यहाँ जो कुछ अपने सामने प्रतीत हो रहा है, यह किसका है और कैसा है? इसका पता तो हमको अभी नहीं चलेगा, पीछे चलेगा । लेकिन एक बात सच्ची है कि जिसमें एक क्षण के लिए भी ठहराव नहीं है, यह मेरे काम का नहीं है । अपने को क्या चाहिए ? अपने को तो परम शांत जीवन चाहिए । अपने को तो परम स्वाधीन जीवन चाहिए, अपने को परम प्रेम चाहिए । इस को अपनी माँग पर दृष्टि रखकर दृष्टिकोण में परिवर्तन कर लीजिए तो रुचि-पूर्ति का त्याग कर दीजिये आज ही अभी से । और माँग पूर्ति के लिए जीना आरम्भ कीजिए । तो मैने ऐसा सुना है, ऐसा विश्वास करती हूँ और कुछ-कुछ ऐसा अनुभव भी है कि जिस क्षण से आप यह निश्चय करेंगे कि मुझे रुचि-पूर्ति का जीवन नहीं चाहिए, मुझे तो माँग-पूर्ति का पुरुषार्थ करना है, ऐसा आप निश्चय करेंगे तो वे अनन्त सामर्थ्यवान आपके भीतर बिना माँगे वह सामर्थ्य भर देंगे कि जिससे आप पुरुषार्थ पूरा कर सकें । ऐसा होता है और आपको हर्ष की बात सुना दूँ कि उत्तराखण्ड में अनुष्ठान करने का संकल्प लेकर जो गृहस्थी लोगों की सहायता लेने के लिए जो सज्जन आये थे, दो चार दिनों तक सुनते-सुनते जाने के समय मुझसे कह कर गए कि बहनजी मैने अनुष्ठान का संकल्प छोड़ दिया । बहुत मजा आया मुझे, हमने कहा कि चलो एक काम बन गया । तो उनका काम तो हो गया और अपने काम को मैं एक बार और दोहरा दूँ, समय खत्म होने वाला है ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 17-18) ।

Sunday 8 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 08 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        जो आपका दृश्य बन सकता है, जिसके आप द्रष्टा हो सकते हैं, वह जीवन नहीं है । वह स्व नहीं है, पर है। ठीक है ना ! तो पर की प्रतीति हो रही है हम लोगों को । तो जिसकी प्रतीति हो रही है, उसी से सम्बन्ध मानने के कारण स्व से विमुख हो गए । ठीक है ! जिसकी प्रतीति हो रही है, उसकी आवश्यकता अनुभव करने के कारण, उसके चिन्तन में हम फँस गये तो स्व में स्थिति नहीं हुई । जो मुझसे भिन्न दिखाई दे रहा है, जिसकी प्रतीति हो रही है, उससे मैने नाता-रिश्ता जोड़ लिया, उसके सुख-दुःख में उसकी आसक्ति में उलझ गए । तो जो परम प्रेमास्पद मेरा अपना नित्य सम्बन्धी मुझ में ही नित्य विद्यमान है, उसकी विस्मृति हो गयी । ठीक है! अब देखो आगे चलो तो सत्य की अभिव्यक्ति कैसे होगी भाई! जिसकी प्रतीति हो रही है उसकी आवश्यकता अनुभव मत करो, उसकी जरूरत अनुभव मत करो उससे सम्बन्ध मत मानो ।

         उसको महत्व मत दो तो उसका चिन्तन छूट जाएगा, उसका लगाव टूट जाएगा, उसका सम्बन्ध टूट जाएगा, मामला खत्म हो गया । इतना ही काम करना है ना । तो असली बात क्या है ? जीवन की सफलता में असली बात क्या है ? तो असली बात यह है, कि चाहे भगवत् विश्वासी हो करके हम लोग इस बात को स्वीकार करे कि मेरा तो नित्य सम्बन्ध अनन्त परमात्मा से है। एक भगवत् अनुरागी संत के पास बैठ करके अपना दुखड़ा सुना रही थी । मेरा सत्संग ऐसा ही रहा हमेशा । अपने भीतर जो सब गंदगी दिखाई देती वह ही मैं संतों को सुनाती रहती । स्वामी जी महाराज को भी मैने खूब सुनाया । एक भगवत् अनुरागी संत के पास मैं कह रही थी कि भई देखिए, अब सब काम तो ठीक ठाक लगता है, सोचना समझना सब हो गया । अब एक ही बात बाकी है, अब मैं ऐसा चाहती हूँ कि हे प्रभु कौन सी घड़ी वह होगी। कब आपकी ऐसी कृपा होगी कि मुझमें यह मेरे पन का भास जो हो रहा है, यह भी खत्म हो जाय । ऐसा मैने कहा तो बड़े अनुराग में भरकर उन्होंने कहा कि अरे इसके फिकर में आप क्यों पडी हैं? उसे सुन्दर रूप दे दो ।

        किसी दिन आदमी ऐसा सोचता है कि मैं अमुक का बेटा हूँ, अमुक का बाप हूँ, अमुक का पति हूँ, अमुक की पत्नी हूँ, अमुक की बेटी हूँ, तो दुनिया भर का यह सब जंजाल फँसा रखा था किसी दिन । अब उस असत् सम्बन्ध को छोड़ देने के बाद अब अपनी थकान मिटाने की चिन्ता तुम क्यों करो ? अपना सुन्दर रूप ले लो - मैं उनका दास हूँ, मैं उनका बालक हूँ, मैं उनका मित्र हूँ, मैं उनका सखा हूँ, मैं उनका गुरु हूँ, मैं उनका शिष्य हूँ, मैं उनकी दासी हूँ, मैं उनकी प्रिया हूँ ।

        बढ़िया सी स्वीकृति अपने में ले लो । मिटाने के पीछे क्यों पड़े हो ? अगर संसार के सम्बन्धों से प्रमादवश तुमको गौरव मालूम होता था कि हम किसी बड़े आदमी के सम्बन्धी हैं तो उससे कम गौरव नहीं होना चाहिए तुम्हारे में कि मैं अनन्त परमात्मा का बालक हूँ । अरे दुनिया के किसी बड़े आदमी से नाता जोड़ करके तुम अपने को गौरवशाली अनुभव करते हो तो तुम तो सचमुच उस अनन्त परमात्मा के अपने हो तो उस गौरव को याद करो, अहम् के नाश का चिन्तन छोड़ दो ।

        यह तो अपने आप से हो जाएगा, उनके प्रेम का रस बढ़ेगा तो इसका कहीं पता चलेगा ? कहीं पता नहीं चलेगा । तो साधन के ढंग में आप सोच करके देखिये कि अशुभ क्रियाओं को तो छोड़ ही दो, अशुभ प्रवृत्तियों का तो नाम ही मत लो, उनके तो जीवन में कभी स्थान ही मत दो । शुभ संकल्पों को भी अगर बनाते ही जाओगे, चेन उसका लगाते ही जाओगे तो एक भी संकल्प अपना पूरा करने के लिए रह गया तो न शरीर से छूटते बनेगा, न समाज से छूटते बनेगा । न पर की प्रतीति में से आप हट सकेंगे ।

        यह समग्र प्रतीति ऐसी ही है । परसैप्सन, प्रत्यक्षीकरण उनकी प्रतीति । इसमें कहीं भी कुछ भी कन्टीन्यूटी नहीं है, सातत्य नहीं है, स्थिरता नहीं है । प्रत्येक क्षण में प्रतीति का प्रत्येक दृश्य बदलता ही जा रहा है - वह तो ऐसा है जिसमें एक क्षण के लिए भी ठहराव नहीं है, उसको पकड़ करके विश्राम पाने की कैसे सोच सकता है आदमी ! दौड़ते हुए को पकड़ करके कोई शान्ति से बैठ सकता है ? नहीं बैठ सकता है ना - तो प्रतीत होने वाली प्रतीति । प्रतीति शब्द का प्रयोग तब किया जाता है जबकि उसका यह अर्थ निकले कि वह कैसा है, यह पता नहीं है, अपने को जैसा दिखता है, वैसा मैने मान लिया । तो पहले तो यही निराधार हो गया ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 14-17) ।

Saturday 7 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

         अहम् के परिवर्तन में आपकी स्वीकृति का कितना बड़ा महत्व है । इस बात पर ध्यान नहीं जाता तो बेचारे भोले-भाले साधक अटके रहते हैं। किस बात पर कि अब ऐसा करेंगे तो जीवन बदलेगा, तो कोई किसी अनुष्ठान में लगा हुआ है, तो कोई किसी संकल्प में लगा हुआ है । कोई तीर्थ यात्रा में लगा हुआ है । कोई खास-खास प्रकार के शुभ कार्य में लगा हुआ है। वे सोचते हैं कि इन प्रकार के कर्मों के द्वारा जीवन बदल जाएगा । तो नहीं बदलता है ऐसी बात नहीं है । शुभ कर्मों का फल भी बनता है और शुभ संकल्पों की पूर्ति का फल भी बनता है। लेकिन अगर संकल्प-पूर्ति का महत्त्व रह गया, संकल्प निवृत्ति का महत्व जीवन में नहीं आया तो एक शुभ संकल्प के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा संकल्प ही संकल्प बनता रहेगा ।

        यहीं पर मुझे एक उदाहरण मिला । एक युवास्था के संन्यासी, संन्यासी वेश आये मिलने के लिए । डालमिया कोठी में, जहाँ में रहती हूँ । वहीं आये और कहने लगे कि बहन जी, आप मुझे नहीं पहचानेंगी लेकिन मैं आपको पहचानता हूँ, संन्यासी होने के पहले मैं स्वामी जी महाराज के पास आया करता था। तो प्रणाम किया । अभिवादन किया । बैठाया, तो बातचीत होने लगी । तो कहने लगे कि मैं तीन वर्ष तक उत्तराखण्ड में बद्रीनारायण जी के रास्ते में कहीं पर ऐसा एक अनुष्ठान करके आया हूँ । मैं तीन साल से वहीं पर था । इस वर्ष वह अनुष्ठान पूरा हो गया तो मैं यहाँ आ गया । बहुत अच्छी बात है । फिर कहने लगे कि बहन जी, अब मैं एक दूसरे तीर्थ का नाम लिया, अमरनाथ केदारनाथ कुछ कहा होगा, मुझे याद नहीं है । कि अब मुझे वैसा ही एक अनुष्ठान वहाँ जाकर करना है । तो आपके पास बहुत से उदार लोग आते हैं तो किसी से कह दीजिएगा, मदद करा दीजिएगा ।

        तीन वर्ष का वैसा ही एक अनुष्ठान मैं और करना चाहता हूँ। मैंने कहा अच्छी बात है, सुन लिया, मैनें बातचीत हो गयी, चले गये । मेरे भीतर एक चिंतन आया, मैंने सोचा कि यह सज्जन, यह साधक एक संकल्प तीन वर्ष का पूरा करके आया और उससे इसके भीतर अपने आप में संतुष्ट होने वाली बात नहीं आयी। जी! अगर आ गयी होती तो फिर नए अनुष्ठान का संकल्प नहीं उठता । ठीक है ना ! तो फिर मेरे ध्यान में आया, यह समझदार व्यक्ति क्यों नहीं सोचते हैं कि एक बार इस अनुष्ठान को पूरा करने से भीतर में सत्य की अभिव्यक्ति नहीं हुई तो अनुष्ठान के संकल्प को छोड़ देना चाहिए । यह भी ध्यान में नहीं आया । यह मैं शुभ संकल्प की बात कह रही हूँ, अशुभ संकल्पों की बात नहीं कर रही हूँ । मुझे तो ऐसा लगता है कि मनुष्य जैसे ही सजग होता है, उसके विवेक के प्रकाश में उसको दिखता ही है कि किसी भी प्रकार के अशुभ कार्यों में उसको हाथ नहीं डालना चाहिए। अशुभ कार्य के लिए मनुष्य के जीवन में कोई स्थान नहीं है। गृहस्थी हो तो क्या, वनस्थी हो तो क्या, समाजसेवी हो तो क्या, वनवासी हो तो क्या । अशुभ कार्यों के लिए तो उसके जीवन में स्थान ही नहीं है । मैं शुभ कार्यों के संकल्प में  बँध जाने की चर्चा आपके सामने कर रही हूँ । तो अगर शुभ संकल्प में भी बँध गए आप तो स्वाधीनता मिली कि पराधीनता मिली ? पराधीनता मिली ना ? एक संकल्प पूरा करके आए और उसी के समान दूसरा करने का विचार उठ गया। तो गृहवासियों की सम्पत्ति पर दृष्टि चली गयी । तो सत्य के निकट हुए कि दूर हुए ? दूर ही हुए । जब उन्होंने अपने मुख से मुझसे कहा कि आपके पास बहुत से लोग आते हैं, उदार लोगों से कह दीजिएगा, इस संकल्प की पूर्ति में जिसकी जो इच्छा हो मदद कर दें । तो उन सज्जन पर मुझे मेरी बड़ी सहानुभूति उपजी । भाई के समान प्रिय लगे मुझे। उन्होंने कहा भी था कि स्वामी जी महाराज के पास मैं आया करता था तो इस नाते से भी वे हमको बहुत प्रिय लगे । मैंने कहा कि ये भला आदमी कहाँ फँस गया ? एक संकल्प पूरा हो गया और उसके परिणाम में शांति की अभिव्यक्ति नहीं हुई । अपने आप में संतुष्टि नहीं पैदा हुई। सत्य के निकट होने के भाव में, अपने आप में डूब जाने की घड़ी नहीं आयी तो यह प्यारा भाई बेचारा कब तक संकल्पों की पूर्ति के पीछे घर गृहस्थी वालों का मुँह देखता रहेगा । 

        दुःख हुआ मुझे । इसी जगह सत्संग चल रहा था । वे हमारे प्यारे भाई भी सत्संग में आकर के बैठ गए थे और मैं ऐसे ही बोल रही थी, बोलते-बोलते यह सब मैने कह दिया । उनका नाम लेकर नहीं । यह तो जीवन की बात है । सच्ची बात है । कहती गयी मैं। अब सोच करके देखिए, जो बात पर के सम्बन्ध को स्वीकार करने से जीवन में उत्पन्न हो गयी है । स्व से भिन्न पर की प्रतीति हम लोगों को हो रही है कि नहीं । जी ! हो रही है ना ! स्व की प्रतीति नहीं होती है और जिसकी प्रतीति होती है, वह स्व नही होता । जो आपका दृश्य बन सकता है, वह जीवन नहीं है, यह दार्शनिक सत्य पकड में आ रहा है ?

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 12-14) ।

Friday 6 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 06 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        अहम् रूपी अणु की बनावट इतनी अच्छी है कि मनुष्य स्वयं अपनी ही गलत धारणा से असत् के संग में उलझ जाता है और वह स्वयं अपनी ही सही बातों से सत् का संगी बन जाता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विश्लेषण में सैल्फ कनसैप्ट एक बहुत ही प्रधान बात मानी जाती है । सैल्फ कन्सैप्ट अपने सम्बन्ध में आपने क्या धारणा बनाई ? इसी के आधार पर विचार बदल जाते हैं। व्यक्तित्व बदल जाता है । व्यवहार बदल जाता है। तो सैल्फ कन्सैप्ट से अपने सम्बन्ध में अपनी एक धारणा मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को निर्धारित करती है और उसके रहन-सहन, विचार-व्यवहार सबको नियन्त्रित करती है । 

        बहुत विस्तार मनुष्य के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में है। केवल इस एक बात पर कि आप अपने जीवन के सम्बन्ध में कौन-सी धारणा स्वीकार की है । हमारे शोध कार्य का विषय यही था। सैल्फ कन्सेप्ट पर ही हम रिसर्च कर रहे थे । स्वामी जी के पास बैठ करके मुझे इस बात की बहुत ही विशेषता मालूम हुई। कौन सी बात ? कि भाई, सुख-दुःख के जाल में फँसे हुए बहुत दिन निकल गए, कोई अपने मै विशेषता आयी नहीं । मनुष्य होने के नाते उसके भीतर से एक आवश्यकता महसूस होती है कि दुःख रहित जीवन चाहिए, अभाव रहित जीवन चाहिए, जन्म-मरण की बाध्यता टूट जानी चाहिए और परम प्रेम का रस जीवन में भर जाना चाहिए । 

        कोई सम्प्रदाय हो, कोई प्रणाली हो, किसी वर्ग के साधक आप हैं, साकार उपासक हैं, निराकार उपासक हैं । योग के साधक हैं, ज्ञान पंथ के साधक हैं । किस मज़हब को मानने वाले हैं, कुछ अन्तर नहीं आता । ये चार बातें सर्व दुःखों की निवृत्ति, परम स्वाधीनता की प्राप्ति, सत्य का बोध, परम प्रेम का रस सबको चाहिए । मानव-मात्र को चाहिए । जिस समय हम लोग अपनी इस मौलिक माँग पर दृष्टि डालते हैं और अपने द्वारा अकेले में बैठकर के निश्चय करते हैं कि भाई, मुझे तो माँग की पूर्ति के लिए ही जीना है । अब रूचि-पूर्ति का कोई स्थान नहीं रहा जीवन में। उसी समय इतना बड़ा विकास अपने भीतर होता है कि आप देखेंगे कि सोते समय यही बात आपके ध्यान में आएगी और स्वप्न काल में पुराने संस्कारों के प्रभाव से कुछ-कुछ स्वप्न बनेंगे तो स्वप्न काल में भी यह आपका निश्चय काम करता रहेगा। और आँखें खुलते ही याद करना नहीं पड़ेगा, सहज से इस बात की याद आएगी कि अच्छा, सबेरा हो गया ओंखें खुली, अब मुझे उठना है तो मेरी माँग की पूर्ति होनी चाहिये । दुःख-निवृत्ति के लिए मुझे जीना है । परम स्वाधीनता का पुरुषार्थ मुझे करना है, परम प्रेमास्पद प्रभु से मुझे मिलना है । इस बात को याद करना नहीं पड़ेगा । आँख खुलते ही यह बात सहज से आपको याद आएगी । क्यों याद आएगी, क्योंकि आपने अपने लिए अपने द्वारा इस जीवन को स्वीकार कर लिया है ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।