Saturday 31 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 31 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        परिस्थिति का सदुपयोग करने वाला प्रतिकूल परिस्थिति के परिवर्तन के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करता, प्रत्युत् अपने ही परिवर्तन का प्रयत्न करता है। यह नियम है कि अपना परिवर्तन करने से कालान्तर में परिस्थिति भी स्वत: बदल जाती है । अपना परिवर्तन बिना किए, परिस्थिति किसी भी प्रकार अनुकूल नहीं होती । अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि प्रतिकूल परिस्थिति आने पर अपने परिवर्तन का यथोचित प्रयत्न करना चाहिए ।

        जो प्राणी परिस्थिति के अतिरिक्त परिस्थिति से अतीत किसी अस्ति-तत्व की स्वीकृति नहीं करते प्रत्युत् यही भाव रखते हैं कि हमको तो सुन्दर-सुन्दर अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता है, उनके लिए भी परिस्थिति का सदुपयोग करना अनिवार्य है, क्योंकि प्राकृतिक विधान (Natural Law) प्रत्येक प्राणी की रुचि की पूर्ति में समर्थ है । अत: वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग करने से ही कर्ता को रुचि के अनुरूप उत्कृष्ट परिस्थिति प्राप्त होती है । यह निर्विवाद सत्य है कि किसी भी वस्तु की उत्पत्ति किसी उत्पत्ति-विनाश-रहित आधार के बिना नहीं हो  सकती । अत: परिस्थिति से अतीत अस्ति-तत्त्व अवश्य है ।

        प्राकृतिक विधान किसी भी परिस्थिति में आबद्ध नहीं रहने देता प्रत्युत् योग्यता के अनुसार त्याग का ही पाठ पढ़ाता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वत: विकास पाकर मिट जाती है । इससे यह भली प्रकार ज्ञात होता है कि प्रत्येक परिस्थिति के त्याग से अथवा उसके दिये हुए ऐश्वर्य से विश्व की सेवा करके परिस्थिति से अतीत प्रेमपात्र की ओर जाना अनिवार्य है । यही परिस्थिति का वास्तविक सदुपयोग है । विचारशील का विचार, योगी का योग, प्रेमी का प्रेम जिस परम तत्व में विलीन होता है, उसी में परिस्थिति का सदुपयोग करने वाला भी विलीन होता है, क्योंकि सच्चाई में कल्पना-भेद भले ही हो, किन्तु सत्ताभेद नहीं होता। अत: वर्तमान परिवर्तनशील परिस्थिति का सदुपयोग उन्नति का सुगम साधन है ।

- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 50-51) ।

Friday 30 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 30 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        जिस प्रकार 3/4 को, यदि 75/100 कर दिया जाये, तो साधारण दृष्टि से तो अंकों में वृद्धि प्रतीत होती है, किन्तु मूल्य उतना ही रहता है, उसी प्रकार बेचारे विषयी की पीड़ा उत्तरोत्तर उत्कृष्ट परिस्थिति आने पर भी बनी ही रहती है। इस दृष्टि से यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि सभी परिस्थितियाँ यन्त्रवत् साधन तो हो सकती हैं, किन्तु प्राणी का जीवन नहीं हो सकतीं । जो प्राणी परिस्थिति को यन्त्र न मानकर जीवन मान लेते हैं, वे बेचारे परिस्थिति का अभिमान धारण कर, अपने हृदय को दीनता तथा अभिमान की अग्नि में दग्ध करते रहते हैं; इसी कारण परिस्थिति के सदुपयोग की अपेक्षा परिस्थिति के परिवर्तन का प्रयत्न करते रहते हैं ।  विधान के अनुरूप मिली हुई परिस्थिति का सदुपयोग, परिस्थिति-परिवर्तन करने और परिस्थिति से अतीत आस्तिकता प्राप्त कराने में समर्थ है, क्यौंकि जो 'है' वह सभी को सभी काल में मिल सकता है। उसके लिए किसी परिस्थिति विशेष की दासता की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत् वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर परिस्थिति के अभिमान से मुक्त होना है । परिस्थिति के अभिमान से मुक्त होते ही, साधक अपने को सभी परिस्थितियों से अतीत पाता है और फिर अपने को सभी परिस्थितियों में तथा सभी परिस्थितियों को अपने में देखता है । यही प्राणी की स्वाभाविक आवश्यकता है । अत: उससे कभी निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता वही होती है, जिसकी पूर्ति परम अनिवार्य है।

        साधारण प्राणी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, संस्था, जाति, देश, समाज आदि स्वीकृतियों को जीवन मान लेते हैं । वास्तव में वे सब परिस्थितियाँ हैं । अपने-अपने स्थान पर सभी अनुकूल हैं। अत: प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने स्थान पर सुन्दर अभिनय का पात्र होना चाहिए, किन्तु उसमें जीवन-बुद्धि लेशमात्र भी न हो, क्योंकि कोई भी अभिनयकर्ता (Actor) अभिनय (Acting) को जीवन नहीं जानता । अभिनय तो केवल छिपे हुए राग की निवृत्ति के लिए साधनमात्र है अर्थात् यों कहो कि राग-निवृत्ति की औषधि है । अभिनयकर्त्ता अभिनय-परिवर्तन की इच्छा या रुचि नहीं करता, प्रत्युत् मिले हुए पार्ट को भली प्रकार कर, अपने अभीष्ट को पाता है । अभिनय में महत्ता पार्ट की नहीं होती, उसको सुन्दरतापूर्वक यथेष्ट करने की होती है । इस दृष्टि से भी परिस्थितियाँ समान अर्थ रखती हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 49-50) ।

Thursday 29 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 29 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        सभी परिस्थितियों का बाह्य-स्वरूप वस्तु और अवस्था के रूप में होता है, किन्तु परिस्थिति फलस्वरूप से सुख तथा दुःख के रूप में सामने आती है । विषयी प्राणी परिस्थिति का भोग करता है । भक्त तथा जिज्ञासु परिस्थिति को साधन मानते हैं, साध्य नहीं । अर्थात् विषयी का जो साध्य है, भक्त तथा जिज्ञासु का वही साधन है । यद्यपि साधक को साधन में अत्यन्त प्रियता होती है, परन्तु साध्य की अपेक्षा साधन साधक की दृष्टि में अधिक महत्ता नहीं रखता । इतना ही नहीं, साध्य के आते ही साधक साधन-सहित अपने को साध्य के प्रति समर्पण कर देता है । विषयी प्राणी सुख-रूप परिस्थिति का भोग कर, परिस्थिति का दास हो जाता है और दुःख-रूप परिस्थिति से भयभीत हो अधीर हो जाता है । परन्तु भक्त तथा जिज्ञासु सुख-रूप परिस्थिति का भोग नहीं करते, प्रत्युत् सुख को दुखियों की वस्तु समझ कर, दुखियों को बाँट देते हैं और दुःख रूप परिस्थिति से त्याग का पाठ पढ़ कर अपने को दुःख के भय से बचा लेते हैं । इस कारण परिस्थिति भक्त तथा जिज्ञासु की दास हो जाती है । अत: भक्त तथा जिज्ञासु पर परिस्थिति का शासन नहीं होता और न भक्त तथा जिज्ञासु परिस्थिति पर शासन करते हैं, प्रत्युत् प्यार करते हैं ।

        प्रत्येक प्राणी को विधान के अनुरूप उन्नति की ओर जाना है। अत: अनुकूल तथा प्रतिकूल अर्थात् सुखमय तथा दुःखमय प्रत्येक परिस्थिति में उन्नति के लिए स्थान है; किन्तु परिस्थिति के द्वारा मिले हुए ज्ञान के अनुरूप जीवन न होने के कारण अवनति होती है । विषयी प्राणी भी तभी उन्नति करता है, जब वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर, उससे उत्कृष्ट परिस्थिति की इच्छा करता है । अर्थात् विषयी प्राणी को भी वर्तमान परिस्थिति में त्याग को अपनाना ही पड़ता है । किन्तु उस त्याग का जन्म किसी प्रकार के राग से होता है; इस कारण विषयी का त्याग परिस्थिति के स्वरूप में ही पुन: सामने आ जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 48-49) ।

Wednesday 28 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 28 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण-जन्माष्टमी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        भक्त तथा जिज्ञासु वर्ण-आश्रम में होते हुए भी वास्तव में वर्ण-आश्रम से प्रतीत ही होते हैं, क्योंकि निर्दोष-तत्त्व तथा भगवान् सभी के हैं । उनकी आवश्यकता सर्वकाल में सभी को होती है। जिसकी आवश्यकता सर्वकाल में है, उसकी प्राप्ति का साधन भी सर्वकाल में होना चाहिए । अत: भक्त परिस्थिति का सदुपयोग करने पर अपने अभीष्ट को प्राप्त होते हैं, यह निर्विवाद सत्य है। 

        प्रेमी तथा जिज्ञासु किसी भी काल में अपने लक्ष्य से विभक्त नहीं होते, किन्तु उनके तथा उनके लक्ष्य के बीच में परिस्थिति-रूप हल्का-सा पर्दा रहता है । उस पर्दे से प्रीति जाग्रत होती है, क्योंकि प्रीति को जाग्रत करने के लिए किसी से किसी प्रकार का वियोग भी अनिवार्य है । अत: भक्त के लिए 'परिस्थिति' प्रेमपात्र की प्रीति जाग्रत करने का और जिज्ञासु के लिए जिज्ञासा प्रबल करने का साधन हो जाती है; क्योंकि परिस्थिति का दोष निर्दोषता की आवश्यकता जाग्रत करने में समर्थ है ।

        यद्यपि प्रत्येक परिस्थिति स्वरूप से अपूर्ण तथा सदोष होती है, किन्तु जिज्ञासु के लिए वह मार्ग के कंटक के समान और भक्त के लिए प्रेमपात्र के पत्र अर्थात् सन्देश के समान होती है। अन्तर केवल इतना होता है कि जिज्ञासु दोषयुक्त परिस्थिति को अनुभूति के आधार पर वीरता और गम्भीरतापूर्वक त्याग कर निर्दोष-तत्व से अभिन्न हो जाता है तथा भक्त परिस्थिति को प्रेमपात्र का संदेश समझ प्रीति जाग्रत कर प्रेमपात्र की कृपा से अभिन्न हो जाता है । इसमें अन्तर इतना ही है कि जिज्ञासु को तो परिस्थिति का त्याग करना पड़ता है किन्तु भक्त का परिस्थिति त्याग करती है; क्योंकि भक्त में प्रेमपात्र की प्रीति के अतिरिक्त कुछ भी करने की शक्ति नहीं रहती । जिज्ञासु पर्दा हटाकर अपने प्रेमपात्र अर्थात् निर्दोष-तत्व पर अपने को न्योछावर करता है । भक्त में स्वयं पर्दा हटाने की शक्ति नहीं होती । अत: भगवान् विवश होकर स्वयं पर्दा हटा कर अपने को भक्त पर न्योछावर करते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 47-48) ।

Tuesday 27 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 27 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        यह नियम है कि प्रत्येक संकल्प-जन्य प्रवृत्ति का अन्त कर्ता की स्वीकृति के अनुरूप होता है। यदि कर्ता की स्वीकृति पवित्र है, तो अपवित्र संकल्प उत्पन्न ही नहीं होते । अत: इस दृष्टि से यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि पवित्र प्रवृत्ति के लिए कर्ता को अपने में पवित्रता स्थापित करना परम अनिवार्य है अर्थात् कर्ता पवित्र होकर ही पवित्र प्रवृत्ति कर सकता है। पवित्रता तथा अपवित्रता भाव हैं, स्वरूप नहीं; क्योंकि स्वरूप का परिवर्तन नहीं होता । पवित्रता तथा अपवित्रता का परिवर्तन होता है । परन्तु पवित्रता औषधि और अपवित्रता रोग है । अत: पवित्रता अपवित्रता की अपेक्षा कहीं अधिक महत्व की वस्तु है। परिवर्तन उसी का होता है, जिसकी कर्ता ने अस्वाभाविक (Artificial) स्वीकृति स्वीकार कर ली है । इसका अर्थ यही है कि अपवित्रता के समान पवित्रता भी अस्वाभाविक है । पवित्रता में अस्वाभाविकता केवल इतनी ही है कि पवित्रता की स्वीकृति पवित्रता आने से पूर्व पवित्रता स्थापित करने के लिए की जाती है। वास्तव में तो पवित्रता की स्वीकृति राग के आधार पर होती है, क्योंकि प्राणी को प्रथम अपवित्रता का ज्ञान होता है । जिस ज्ञान से अपवित्रता का ज्ञान होता है, उसी से पवित्रता की स्वीकृति होती है । इस दृष्टि से पवित्रता की उतत्ति ज्ञान से हुई, किन्तु अपवित्रता की उत्पत्ति ज्ञान-शून्य अन्ध-विश्वास एवं इन्द्रिय-जन्य स्वभाव की आसक्ति के आधार पर होती है ।

        कर्ता स्वरूप से तो केवल समष्टि (Universal) क्रिया-शक्ति है, किन्तु उसमें व्यक्ति-भाव केवल स्वीकृति के आधार पर ही उत्पन्न होता है । उनमें से मूल स्वीकृतियाँ केवल तीन प्रकार की होती हैं - (1) विषय  (2) जिज्ञासा तथा (3) भक्ति। विषयी होने का वही अधिकारी है, जो प्राप्त भोगों को भोगता हुआ अप्राप्त उत्कृष्ट भोगों के लिए घोर प्रयत्न करता है । भक्त होने का वही अधिकारी है जो सब प्रकार से भगवान् का होने में समर्थ है तथा जिसके हृदय में भगवान् के प्रति विकल्प-रहित विश्वास है । जिज्ञासु होने का वही अधिकारी है, जो प्राप्त भोगों को भोगता नहीं, अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करता एवं दोष को दोष जान लेने पर उसे त्यागने में समर्थ है; इतना ही नहीं, प्रत्युत् जिसको निर्दोषता के अतिरिक्त किसी से लेशमात्र भी प्रीति नहीं है। 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 46-47) ।

Monday 26 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 26 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        परिस्थिति का सदुपयोग करने के लिए कर्ता को कार्य-कुशलता, भाव की पवित्रता एवं लक्ष्य पर दृष्टि रखना परम् अनिवार्य है। कार्य-कुशलता के लिए ईमानदारी, योग्यता एवं परिश्रमी होना आवश्यक है । ईमानदारी आने पर उन सभी प्रवृत्तियों का अन्त हो जाता है, जिनसे कर्ता तथा अन्य प्राणियों का अहित होता है, अर्थात् अहितकारी चेष्टाएँ मिट जाती हैं । अहितकारी चेष्टाओं की उत्पत्ति तब होती है, जब हम अपने ज्ञान के अनुरूप चेष्टा नहीं करते अर्थात् अपनी अनुभूति का निरादर करते हैं । भाव की पवित्रता का अर्थ केवल इतना ही है कि कर्ता में किसी के अहित का भाव न हो, प्रत्युत् सर्वहितकारी भाव हो । लक्ष्य पर दृष्टि रखने का अर्थ केवल इतना ही है कि कर्ता को अपनी स्वाभाविक आवश्यकता की पूर्ति एवं भोग-वासनाओं की निवृत्ति पर दृष्टि रखनी चाहिए।

        प्रत्येक कर्ता में क्रियाशक्ति, राग तथा संस्कृति-जन्य स्वीकृति विद्यमान है । केवल क्रियाशक्ति यन्त्र के समान है। वह स्वरूप से उन्नति तथा अवनति का हेतु नहीं है । जब प्राणी क्रियाशक्ति का उपयोग राग की पूर्ति अर्थात् भोग के लिए करता है, तब उन्नति रुक जाती है और जब वह राग के यथार्थ ज्ञान के लिए संस्कृति-जन्य स्वीकृति के अनुरूप क्रियाशक्ति का उपयोग करता है, तब उसकी स्वत: उन्नति होने लगती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृत्ति करने पर केवल क्रिया-जन्य रस ही नहीं आता प्रत्युत् भाव-जन्य रस भी आता है, परन्तु इन्द्रिय-जन्य स्वभाव के अनुरूप प्रवृत्ति करने पर केवल क्रिया-जन्य रस आता है, जो मानवता के विरुद्ध है ।

        स्वीकृति का सद्भाव क्रिया-जन्य रस को भाव-जन्य रस में विलीन कर देता है । भाव-जन्य रस ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों स्वार्थ-भाव अर्थात् भोग की वासना या इन्द्रिय-जन्य स्वभाव की आसक्ति स्वत: गलती जाती है । ज्यों-ज्यों भोग की वासना गलती जाती है, त्यों-त्यों सेवा का भाव स्वत: उत्पन्न होता जाता है । सेवा-भाव आ जाने पर संस्कारों की दासता मिट जाती है अर्थात् सेवक की अहंता में से यह भाव समूल नष्ट हो जाता है कि 'संसार मेरे काम आ जाए;' प्रत्युत् यह भाव कि ' मैं संसार के काम आऊँ', सतत जाग्रत रहता है । ज्यों-ज्यों संसार के काम न आने का दुःख बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों प्राकृतिक विधान (Natural Law) के अनुसार आवश्यक शक्ति का विकास सेवक के जीवन में स्वत: होता जाता है, किन्तु सेवक उस शक्ति का स्वयं भोग नहीं करता प्रत्युत् उसको बाँट देता है । इतना ही नहीं, वह अपने को बाँटने के रस में भी आबद्ध नहीं होने देता । जब सेवक किसी प्रकार का वह रस, जो किसी के संयोग या प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है, नहीं लेता तब उसमें नित्य-रस स्वयं आ जाता है। नित्य-रस आते ही सेवक में सेवक-भाव शेष नहीं रहता, किन्तु जिस प्रकार सूर्य से प्रकाश स्वत: फैलता है, उसी प्रकार सेवक-भाव न रहने पर भी सेवा स्वत: होती रहती है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 44-46) ।

Sunday 25 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 25 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        'विश्व' कर्ता के सामने अनेक प्रकार की स्वीकृतियों के रंग भेंट करता है, किन्तु कर्ता अपनी रुचि तथा विश्वास के अनुसार विश्व की दी हुई भेंट को स्वीकार करता है। साधारण दृष्टि से तो स्वीकृति ही कर्ता की सत्ता प्रतीत होती है, किन्तु स्वीकृति को परिवर्तित कर लेने पर, वह निर्जीव यन्त्र के समान जान पडती है और कर्ता उससे अतीत प्रतीत होता है। अत: कर्ता जिस प्रकार की स्वीकृति स्वीकार कर लेता है, उसी प्रकार की प्रवृत्ति में प्रवृत्त हो जाता है । 

        कर्ता शरीर-भाव के सम्बन्ध से अपने में भोग-वासनाओं को पाता है, किन्तु फिर भी उसमें नित्य-जीवन तथा नित्य-रस की आवश्यकता विद्यमान रहती है । भोग-वासनाएँ नित्य-जीवन तथा नित्य-रस की आवश्यकता को ढक लेती हैं, मिटा नहीं पातीं। वियोग के भय से तथा कमी के अनुभव एवं दुःख से जब कर्ता को भोग-प्रवृत्ति की अपूर्णता का बोध होता है, तब स्वाभाविक आवश्यकता जाग्रत होने लगती है । इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सभी परिस्थितियाँ असमर्थ हैं, किन्तु वे साधनमात्र अवश्य हैं। परिस्थिति बेचारी यन्त्रवत् है, उसका सदुपयोग करने पर प्रत्येक परिस्थिति सहायक मित्र है । विचारशील को न तो परिस्थिति की दासता स्वीकार करनी चाहिए और न उससे शत्रुता । दासता नित्य-जीवन की आवश्यकता नहीं जाग्रत होने देती और शत्रुता सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होने देती, इस कारण विचारशील को केवल परिस्थिति का सदुपयोग ही करना है । यह अखण्ड सत्य है कि परिस्थिति का सदुपयोग करने पर परिस्थिति स्वयं मिट जाती है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 44) ।

Saturday 24 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 24 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        प्रत्येक परिस्थिति की उत्पत्ति कर्म से होती है और कर्म कर्ता के अनुरूप होता है अर्थात् कर्ता स्वयं कर्म के स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है; परन्तु साधारण दृष्टि से कर्ता और कर्म में भेद प्रतीत होता है । वास्तव में तो कर्ता का विकसित स्वरूप ही कर्म है । जिस प्रकार सूर्य का विकसित स्वरूप किरण तथा धूप आदि हैं, उसी प्रकार क्रिया और फल प्रवृत्ति- कर्ता के विकसित स्वरूप हैं । 

        कर्म का प्रत्येक साधन कर्ता के पश्चात् उत्पन्न होता है अर्थात् कर्म से कर्ता की उत्पत्ति नहीं होती, प्रत्युत् कर्ता से कर्म की उत्पत्ति होती है । यद्यपि कर्म कर्ता से उत्पन्न हो, उसकी असावधानी के कारण कभी-कभी उसी पर ही शासन करने लगता है । परन्तु यह अवश्य है कि कर्ता से कर्म की उत्पत्ति होने पर भी कर्ता कर्म से अतीत ही रहता है । कर्म कर्ता के बिना नहीं रह सकता, किन्तु कर्ता कर्म के बिना भी रह सकता है । जिस प्रकार नेत्र के बिना देखने की क्रिया नहीं हो सकती, देखने की क्रिया नेत्र के आश्रित रहती है; किन्तु नेत्र स्वतन्त्र हैं न देखने के लिए भी, क्योंकि देखने की क्रिया न होने पर भी नेत्र अपने को नेत्र के स्वरूप में जीवित रखता है अर्थात् देखने, न देखने में नेत्र अपने को स्वतन्त्र पाता है । इसी प्रकार कर्ता अपने को करने तथा न करने में स्वतन्त्र पाता है । मूल रूप से कर्ता सफेद वस्त्र के समान है, किन्तु जिस रंग में उसको रंग दिया जाता है, उसी रंग को वह प्रकाशित करने लगता है । रंग के स्वीकार करने में कर्ता स्वतन्त्र है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 43-44) ।

Friday 23 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 23 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        सुख-दु:ख का  दुरुपयोग ही पतन का कारण है, जो प्राणी की अपनी बनाई हुई वस्तु है। जब हम अपने को अपने दोष का कारण नहीं मानते, तब हमको अपनी दृष्टि से अपने दोष नहीं दिखाई देते । ऐसी अवस्था में हम उन्नति से निराश होने लगते हैं । हम समझने लगते हैं कि हमको तो पतन के लिए ही उत्पन्न क्रिया गया है। हमारी परिस्थिति प्रतिकूल है, हम उन्नति में असमर्थ हैं । प्यारे ! गम्भीरतापूर्वक देखिए, प्रत्येक परिस्थिति विश्व का अंगमात्र है। कोई भी अंगी अपने अंग का पतन नहीं करता, प्रत्युत् सुधार करता है; जिस प्रकार माँ शिशु के हित के लिए शिशु के दूषित अङ्ग को चिरवा देती है । माँ के हृदय में शिशु के प्रति अगाध प्यार है, किन्तु शिशु वर्तमान पीड़ा को देख कर, माँ का अन्याय देखने लगता है । बस इसी प्रकार हम सुख का वियोग तथा दुःख का संयोग होने पर प्राकृतिक विधान को अन्यायपूर्ण तथा कठोर समझने लगते हैं । यह हमारी शिशु के समान बाल-बुद्धि का प्रभाव है और कुछ नहीं ।

        प्राकृतिक विधान को न्यायपूर्ण स्वीकार करते ही, प्राणी वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग करने लगता है । ज्यों-ज्यों सदुपयोग की भावना दृढ़ हो जाती है, त्यों-त्यों प्रतिकूलता अनुकूलता में स्वत: परिवर्तित होती जाती है । जिस प्रकार कटु औषधि का सेवन करने पर, ज्यों-ज्यों रोग निवृत्त होता जाता है, त्यों-त्यों रोगी को औषधि के प्रति प्रियता उत्पन्न होती जाती है अर्थात् कटु औषधि मधुर से भी अधिक मधुर प्रतीत होने लगती है। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के सदुपयोग करने पर प्रतिकूलता अनुकूलता से भी अधिक अनुकूल मालूम होने लगती है। इस दृष्टि से केवल परिस्थिति का दुरुपयोग करना ही प्रतिकूलता है । परिस्थिति वास्तव में प्रतिकूल नहीं होती। इसका अर्थ यह नहीं है कि परिस्थिति जीवन है अथवा परिस्थिति को ही सुरक्षित रखना है अथवा उससे ऊपर नहीं उठना है । प्यारे! परिस्थिति जल-प्रवाह के समान बिना ही प्रयत्न निरन्तर परिवर्तित हो रही है । हमें तो उसका सदुपयोग कर उससे अतीत अपने प्रेमपात्र की ओर जाना है । 

        इस दृष्टि से प्रत्येक परिस्थिति हमारे मार्ग का स्थान है अथवा खेलने का मैदान है । कोई भी विचारशील खेलने के मैदान में तथा मार्ग के स्थान में सर्वदा रहने का प्रयत्न नहीं करता, क्योंकि खेलना मन में छिपी हुई आसक्ति का यथार्थ ज्ञान कराने का साधन है और मार्ग प्रेमपात्र तक पहुँचने का साधन है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 42-43) ।

Thursday 22 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 22 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

परिस्थिति का सदुपयोग

        परिवर्तनशील सीमित सौन्दर्य में सन्तुष्ट होने का स्वभाव 'काम' उत्पन्न करता है । काम के उत्पन्न होते ही प्राणी अपने को किसी न किसी सीमित स्वीकृति में आबद्ध कर लेता है। सीमित स्वीकृति में आबद्ध होते ही स्वीकृति के अनुरूप अनेक संकल्प होने लगते हैं । संकल्प उत्पन्न होते ही इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति होने लगती है । यद्यपि इन्द्रियों की प्रवृत्ति के अन्त में शक्तिहीनता से भिन्न कुछ नहीं मिलता, परन्तु प्रवृत्ति की प्रतीति एवं प्रवृत्ति-जन्य रस की अनुभूति की प्रतीति अवश्य होती है । बस, उसी प्रतीति का नाम परिस्थिति है ।

        वर्तमान परिवर्तनशील जीवन नित्य-जीवन का साधन है। इस दृष्टि से प्रत्येक प्राणी उन्नति के लिए सर्वदा स्वतन्त्र है। विधाता का विधान (Natural Law) न्यायपूर्ण है । प्रत्येक परिस्थिति किसी अन्य परिस्थिति की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा अश्रेष्ठ देखने में आती है । वास्तव में तो सभी परिस्थितियाँ स्वरूप से अपूर्ण हैं । यह नियम है कि अपूर्णता प्राणी को स्वभाव से ही अप्रिय है । इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि परिस्थिति प्राणी का जीवन नहीं है, प्रत्युत् वास्तविक नित्य-जीवन का साधनमात्र है । साधन में साध्य-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद है । साधन का तिरस्कार करना, उसको अपने पतन का कारण मान लेना अथवा उससे हार स्वीकार करना, साधक की असावधानी और भूल ही है ।

        प्राकृतिक विधान प्रेम तथा न्याय का भण्डार है । अत: वह दण्ड नहीं देता, परन्तु उसके सिखाने के अनेक ढंग हैं । साधारण प्राणी परिस्थिति-मात्र में जीवन-बुद्धि स्थापित कर प्राकृतिक विधान को दण्ड मान लेते हैं । प्रत्येक परिस्थिति का अर्थ सुख तथा दुःख है । प्रत्येक प्राणी सुख तथा दुःख के बन्धन में ही अपने को बाँध लेता है । किन्तु स्वाभाविक रुचि आनन्द की होती है । आनन्द तथा आनन्द के अभिलाषी प्राणी के बीच में सुख तथा दुःख का ही पर्दा है । सुख-दुःख का सदुपयोग करने पर सुख-दुःख नहीं रहता । अत: इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि परिस्थिति अर्थात् सुख-दुःख न तो प्राणी का जीवन है और न पतन का कारण है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 41-42) ।

Wednesday 21 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 21 August 2013  
(श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        अब विचार केवल यह करना है कि शरणागत होने का अधिकार कब प्राप्त होता है ? जब प्राणी अपनी सीमित शक्तियों का जो अनन्त से प्राप्त है, सदुपयोग कर लेता है और अपने लक्ष्य से निराश नहीं होता, ऐसी दशा में शरणागत होने का भाव स्वत: उत्पन्न होता है । जिस प्रकार बालक जब अपनी इच्छित वस्तु को अपने बल से नहीं पा सकता, तब विकल हो माँ की ओर देखकर रोने लगता है, बस उसी काल में, माँ अपने ऐश्वर्य एवं माधुर्य से बच्चे की इच्छित वस्तु प्रदान करती है; उसी प्रकार हमें यही करना है कि बालक की भाँति अपनी सारी प्राप्त शक्ति का पवित्रतापूर्वक ईमानदारी से सदुपयोग करें और लक्ष्य से निराश न हों, प्रत्युत् अपनी अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न नित्य-सत्ता के शरणापन्न हो जाएँ। ऐसा करते ही प्राणी अपने उस स्वभावानुसार कि जिसे मिटाने में वह असमर्थ है, विधान के अनरूप विकास पा जाएगा ।

        यह अखण्ड सत्य है कि जब तक हम अपने आपको सीमित विकास से सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते रहेंगे, तब तक असीम शक्ति उस विकास का यथार्थ जान कराने के लिए उसका ह्रास करती रहेगी, क्योंकि वह हमारी अपने से किसी भी प्रकार भी भिन्नता सहन नहीं कर सकती । हमको उस असीम सत्ता का असीम प्यार देखना चाहिए, जो हमारे बिना किसी प्रकार नहीं रह सकती । यह कैसा वैचित्र्य है कि जो विषय-सत्ता हमारा निरन्तर तिरस्कार कर रही है, हम प्रमादवश उसी की ओर दौड़ते रहते हैं और जो असीम-सत्ता निरन्तर प्रेमपूर्वक हमें अपनाने का प्रयत्न करती है, हम उससे विमुख रहते हैं ! विचारशील प्राणी को इस प्रमाद-युक्त प्रगति का नितान्त अन्त कर देना चाहिए, जो शरणागति-भाव से स्वतन्त्रतापूर्वक हो सकता है । 

        अपनी न्यूनता का अनुभव करना तथा उसे मिटाने का प्रयत्न करना  'मानवता' है । जो अपनी न्यूनता का अनुभव नहीं करता, वह मानव नहीं और जो अनुभव कर उसे मिटाने का प्रयत्न नहीं करता, वह भी मानव नहीं एवं जिसमें किसी भी प्रकार की न्यूनता नहीं है, वह भी मानव नहीं । अर्थात् न्यूनता होते हुए चैन से न रहना ही मानवता है । इसी कारण मानवता में उपार्जन के अतिरिक्त उपभोग के लिए कोई भी स्थान नहीं है। उपार्जन ही मानव-जीवन का सदुपयोग है । उस मानव-जीवन की सार्थकता के लिए शरण्य के शरणापन्न होना परम अनिवार्य है, क्योंकि ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो शरणागत होने से न मिट जाए अर्थात् स्वभावानुसार विकास तथा नित्य-जीवन शरण्य के शरणागत होते ही सुलभ हो जाता है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि 'शरण' सफलता की कुन्जी है ।

- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 39-40) ।

Friday 16 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 16 August 2013  
(श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        भिन्नता 'द्वेष' और एकता 'प्रेम' है । ऐसा कोई दोष नहीं है, जो भिन्नता से उत्पन्न न हो । ऐसा कोई गुण नहीं है, जो एकता से उत्पन्न न हो अर्थात् सभी दोषों का कारण भिन्नता एवं सद्गुणों का कारण एकता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रवृत्ति भी सीमित अहंता के बिना नहीं हो सकती, परन्तु शरणापन्न होते ही प्रवृत्ति की आवश्यकता शेष नहीं रहती; अत: प्रवृत्ति निःशेष हो जाती है । प्रवृत्ति का अभाव होते ही सीमित अहंता उसी प्रकार गल जाती है, जिस प्रकार सूर्य की उष्णता से बर्फ गल जाती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि शरणागत होने के अतिरिक्त कोई भी ऐसा उपाय नहीं है, जिससे भिन्नता का नितान्त अन्त हो जाए । 

        शरणागत होने का वही अधिकारी है, जो वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर अपने लिए नित्य-जीवन एवं नित्य-रस की आवश्यकता का अनुभव करता है । जो प्राणी प्रतिकूल परिस्थिति के साथ-साथ अपना भी मूल्य घटाता जाता है तथा अनुकूल परिस्थिति की आसक्ति में फँसता जाता है; एवं जो परिस्थिति से हार स्वीकार करता है तथा लक्ष्य से निराश हो जाता है, वह न तो आस्तिक हो सकता है और न शरणागत ।

        स्वीकृतिमात्र को ही अपने को आप समझ लेना, तात्विक दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है । प्रेमपात्र में अपूर्णता का भास अथवा अपने स्वीकृत भाव में विकल्प का होना आस्तिक-दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृत्ति का न होना अथवा किसी भी वस्तु अवस्था एवं परिस्थिति की ओर आकृष्ट होना अथवा ऐसी प्रवृत्ति करना, जो किसी की पूर्ति का साधन न हो, व्यावहारिक दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है ।

        यद्यपि शरण निर्बल का बल है, परन्तु जो प्राणी हार स्वीकार कर लेता है, उसके लिए शरण असम्भव हो जाता है। निर्बल के बल का अर्थ केवल इतना ही है कि शरणागत बिना किसी अन्य की सहायता के स्वयं केवल शरणागति-भाव से ही सफलता प्राप्त करता है । भाव करने में प्रत्येक प्राणी सर्वदा स्वतन्त्र है । जब शरणागत होने पर अहंता परिवर्तित हो जाती है, तब शरणागत का मूल्य संसार से बढ़ जाता है अर्थात् वह अपनी प्रसन्नता के लिए संगठन की ओर नहीं देखता । बस, उसी काल में शरणागत के जीवन में निर्वासना, निर्वैरता, निर्भयता, समता, मुदिता आदि सद्गुण स्वत: उत्पन्न होने लगते हैं । शरणागत किसी भी गुण को निमन्त्रण देकर बुलाता नहीं है और न सीखने का ही प्रयत्न करता है । अत: इस दृष्टि से अनेक विभागों में विभाजित अहंता को 'मैं उनका हूँ’, इस भाव में विलीन करना परम अनिवार्य है, जो शरणागति- भाव से सुगमतापूर्वक अपने-आप हो जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 38-39) ।

Thursday 15 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 15 August 2013  
(श्रावण शुक्ल नवमीं, स्वतन्त्रता-दिवस, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        विचार दृष्टि से यह भली-भाँति सिद्ध होता है कि अहंता के अनुरूप ही प्रवृत्ति होती है । पतित से पतित अहंता भी शरणागत होते ही परिवर्तित हो जाती है । अहंता परिवर्तित होते ही अहंता में जो दोषयुक्त संस्कार अंकित थे, वे मिट जाते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के बिना बीज का उपजना असम्भव है, उसी प्रकार दोषयुक्त अहंता के बिना दोषयुक्त संस्कारों का उपजना असम्भव है । अत: यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि पतित से पतित प्राणी भी शरणागत होते ही पवित्र हो जाता है । जिस भाँति मिट्टी कुम्हार की शरणागत होकर कुम्हार की ही योग्यता और बल से कुम्हार के काम आती है और कुम्हार का प्यार पाती है, उसी भाँति शरणागत शरण्य के ही अनन्त 
ऐश्वर्य एवं माधुर्य से शरण्य के काम आता है एवं उसका प्यार पाता है । यह नियम है कि जो जिसके काम आता है, वह उसका प्रेमपात्र हो जाता है । अत: इसी नियमानुसार शरणागत शरण्य का शरण्य हो जाता है । भला इससे अधिक सुगम एवं स्वतन्त्र कौन-सा मार्ग है, जो स्वतन्त्रतापूर्वक साधक को शरण्य का शरण्य बना देता है ? 

        शरणागत में किसी भी प्रकार का अभिमान शेष नहीं रहता है । दीनता का अभिमान भी अभिमान है । शरणागत दीन नहीं होता क्योंकि उसका शरण्य से पूर्ण अपनत्व होता है । अपनत्व और दासता में भेद है । दासता बन्धन का कारण है और अपनत्व स्वतन्त्रता का कारण है । अपनत्व होने से भिन्नता का भाव मिट जाता है । भिन्नता मिटते ही स्वतन्त्रता अपने-आप आ जाती है। भिन्नता का भाव उत्पन्न होने पर ही प्राणी में किसी न किसी प्रकार का अभिमान उत्पन्न होता है । शरणापन्न होने पर अभिमान गल जाता है । अभिमान गलते ही भिन्नता एकता में विलीन हो जाती है । एकता होने पर भय शेष नहीं रहता । अत: शरणागत सब प्रकार से अभय हो जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 37) ।

Wednesday 14 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 14 August 2013  
(श्रावण शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        शरणागत में मानव-जीवन स्वभावत: उत्पन्न होता है । जब शरणागत शरणापन्न हो जाता है, तब ऋषि-जीवन का अनुभव कर, अपने ही में अपने शरण्य को पाता है । शरणागत और शरणापन्न में अन्तर केवल यही है कि शरणागत शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है और शरणापन्न प्रेम का आस्वादन करता है ।

        शरणागति अभ्यास नहीं है, प्रत्युत् सद्भाव है । शरणागति भाव का सद्भाव होने पर प्राणी का समस्त जीवन शरणागतिमय हो जाता है अर्थात् शरणागत केवल मित्र के लिए मित्र, पुत्र के लिए पिता, पिता के लिए पुत्र, गुरु के लिए शिष्य, शिष्य के लिए गुरु, पति के लिए पत्नी, पत्नी के लिए पति, समाज के लिए व्यक्ति और देश के लिए ही देशीय होता है । जो-जो व्यक्ति उससे न्यायानुसार जो-जो आशा करता है, उसके प्रति शरणागत वही अभिनय करता है । अपने लिए वह शरण्य से भिन्न और किसी की आशा नहीं करता, अथवा यों कहो कि शरणागत सबके लिए सब कुछ होते हुए भी, अपने लिए शरण्य से भिन्न किसी अन्य की ओर नहीं देखता । जब शरणागत अपने लिए किसी भी व्यक्ति, समाज आदि की अपेक्षा नहीं करता तब अभिनय के अन्त में शरणागत के हृदय में शरण्य के विरह की अग्नि अपने-आप प्रज्वलित हो जाती है ।

        अत: शरणागत सब कुछ करते हुए भी शरण्य से विभक्त नहीं होता । गहराई से देखिए, कोई भी ऐसा अभ्यास नहीं है, जिससे साधक विभक्त न हो, क्योंकि संघठन से उत्पन होने वाला अभ्यास किसी भी प्रकार निरन्तर हो ही नहीं सकता। परन्तु शरणागति से परिवर्तित अहंता निरन्तर एकरस रहती है। अन्तर केवल इतना रहता है कि शरणागत कभी तो शरण्य के नाते विश्व की सेवा करता है तथा कभी शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है एवं कभी शरण्य से अभिन्न हो जाता है । वह साधन पूर्ण साधन नहीं हो सकता, जिससे साधक विभक्त हो जाता है, क्योंकि पूर्ण साधन तो वही है, जो साधक को साध्य से विभक्त न होने दे । अत: इस दृष्टि से शरणागति- भाव सर्वोत्कृष्ट साधन है।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 36) ।

Tuesday 13 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 13 August 2013  
(श्रावण शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        जो प्राणी उस अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न नित्य-तत्त्व के शरणापन्न नहीं होते वे बेचारे अनेक वस्तुओं एवं परिस्थितियों के शरणापन्न रहते हैं जैसे, कामी कामिनी के, लोभी धन के, अविवेकी शरीर के; क्योंकि स्वीकृतिमात्र से उत्पन्न होने वाली अहंता अनेक भावों में विभक्त होती रहती है। वह जब-जब जिस-जिस भाव को स्वीकार करती है, तब-तब उसी के शरणापन्न होती है । सत्य के शरणापन्न होने वाला प्राणी अपने को स्वीकृतिजन्य अहंता से मुक्त कर लेता है ।

        शरणागत की अहंता निर्जीव अर्थात् भुने हुए बीज की भाँति केवल प्रतीति मात्र रहती है, क्योंकि उसमें से सीमित भाव एवं स्वीकृति-जन्य सत्ता मिट जाती है । जब प्राणी सीमित भाव एवं स्वीकृति को ही अपनी सत्ता मान बैठता है, तब अनेक प्रकार के विघ्न उत्पन्न हो जाते हैं । गहराई से देखिए, यद्यपि प्रत्येक प्राणी में प्यार उपस्थित है, परन्तु स्वीकृति-मात्र को सत्ता मान लेने से प्यार जैसा अलौकिक तत्व भी सीमित हो जाता है। सीमित प्यार संहार का काम करता है, जो प्यार के नितान्त विपरीत है । जैसे देश के प्यार ने अन्य देशों पर, सम्प्रदाय के प्यार ने अन्य सम्प्रदायों पर, जाति के प्यार ने अन्य जातियों पर अत्याचार किया है जो मानव-जीवन के सर्वथा विरुद्ध है। आस्तिकतापूर्वक शरणागत होने से स्वीकृति-जन्य सत्ता मिट जाती है । स्वीकृति-जन्य सत्ता के मिटते ही सीमित अहंभाव शेष नहीं रहता । सीमित अहंभाव के निःशेष होते ही अलौकिक प्यार विभु हो जाता है, जो वास्तव में मानव-जीवन है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 35) ।

Monday 12 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 12 August 2013  
(श्रावण शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        प्राणी की स्वाभाविक प्रगति अपने केन्द्र के शरणापन्न होने की है । अब विचार यह करना है कि हमारा केन्द्र क्या है ? केन्द्र वही हो सकता है कि जिसकी आवश्यकता हो । आवश्यकता नित्य-जीवन, नित्य-रस एवं सब प्रकार से पूर्ण और स्वतन्त्र होने की है । अत: हमारा केन्द्र वही हो सकता है, जो सब प्रकार से पूर्ण एवं स्वतन्त्र हो । हमें उसी के शरणापन्न होना है ।

        हम सबसे भारी भूल यही करते हैं कि अपने केन्द्र तक पहुँचने के पूर्व मार्ग में अनेक इच्छाओं की पहाड़ियाँ स्थापित कर, स्वाभाविक प्रगति को रोक देते हैं; यद्यपि अनन्त शक्ति उन पहाड़ियों को उसी प्रकार प्यारपूर्वक छिन्न-भिन्न करने का निरन्तर प्रयत्न करती है, जैसे माँ बालक को सिखाने का प्रयत्न करती है ।

        हम उस अनन्त शक्ति का विरोध करने का विफल प्रयास  क़रते रहते हैं, यह परम भूल है । महामाता प्रकृति हमको निरन्तर यह पाठ पढ़ा रही है कि सीमित सत्ता अनन्तता के शरणापन्न होती है; जिस प्रकार नदी समुद्र की ओर और बीज वृक्ष की ओर निरन्तर प्रगतिशील है । कोई भी वस्तु एवं अवस्था ऐसी नहीं है, जो निरन्तर परिवर्तन न कर रही हो, मानो हमें सिखा रही हो कि हमको किसी भी सीमित भाव में आबद्ध नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत् अपने परम स्वतन्त्र केन्द्र की ओर प्रगतिशील होना चाहिए, जो शरणागत होने पर सुगमतापूर्वक हो सकता है ।

        यह अखण्ड नियम है कि कोई भी भाव तब तक सजीव नहीं होता, जब तक कि वह विकल्प-रहित न हो जाए । जिस प्रकार बोए हुए बीज को किसान बोकर विकल्परहित हो जाता है, अर्थात् बीज को बार-बार निकाल कर देखता नहीं है और न सन्देह करता है, तब बीज पृथ्वी से घुल-मिलकर अपने स्वभावानुसार विकास पाता है । उसी प्रकार शरणागत अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न सत्ता से घुल-मिलकर अपने स्वभावानुसार विकास पाता है और सीमित स्वभाव को मिटाकर उससे अभिन्न भी हो जाता है। किन्तु उसका शरणागतभाव निर्विकल्प होना चाहिए, क्योंकि सद्भाव में विकल्प नहीं होता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 34-35) ।

Sunday 11 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 11 August 2013  
(श्रावण शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        शरणागत होने के पूर्व प्राणी की अहंता अनेक भागों में विभक्त रहती है। शरणागत होने पर अनेक भाव एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं । जब अनेक भाव एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं, तब प्राणी को एक जीवन में दो प्रकार के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव होता है । एक तो उसका वास्तविक जीवन होता है, दूसरा उसका अभिनय। शरणागत का वास्तविक जीवन केवल शरण्य का प्यार है। शरणागत का अभिनय धर्मानुसार विश्व-सेवा है, अर्थात् विश्व शरणागत से न्यायपूर्वक जो आशा रखता है, शरणागत विश्व की प्रसन्नता के लिए वही अभिनय करता है । 

        यह नियम है कि अभिनय में सद्भाव नहीं होता, क्रिया-भेद होने पर भी प्रीतिभेद नहीं होता है । अभिनयकर्ता अपने आपको नहीं भूलता तथा उसकी अभिनय में जीवन-बुद्धि नहीं होती। अभिनय के अन्त में उस स्वीकृत भाव का अत्यन्त अभाव हो जाता है । बस उसी काल में शरणागत सब ओर से विमुख होकर शरण्य की ओर हो जाता है ।  

        प्राकृतिक नियम के अनुसार अनन्त शक्ति निरन्तर प्रत्येक प्राणी को स्वभावत: अपनी ओर आकृष्ट करती रहती है, परन्तु स्वतन्त्रता नहीं छीनती और न शासन करती है । यदि वह स्वत: आकर्षित न करती, तो प्राणी के सीमित प्यार को निरन्तर छिन्न-भिन्न न करती रहती । यह नियम है कि जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, अन्त में उसी में विलीन होती है । अत: अनन्त शक्ति से उद्भूत प्रेम की पवित्र धारा अनन्त शक्ति ही में विलीन होगी । उसे वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों में बाँधने का प्रयत्न व्यर्थ चेष्टा है । शरणागत-भाव होने पर प्रेम की पवित्र धारा शरण्य ही में विलीन होती है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 33) ।

Saturday 10 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 10 August 2013  
(श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        भेद तथा अभेद भाव के शरणागत में अन्तर केवल इतना रहता है कि भेदभाव का शरणागत विरह एवं मिलन दोनों प्रकार के रसों का आस्वादन करता है और अभेद-भाव का शरणागत अपने में ही शरण्य का अनुभव कर नित्य एक रस का अनुभव करता है । अनुभव का अर्थ उपभोग नहीं है । उपभोग तो संयोग से होता है । उपभोग-काल में कर्ता में भोक्ता-भाव शेष रहता है । परन्तु मिलन का रस ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों भोक्ता की सत्ता मिटती जाती है । इसी कारण उपभोग-कर्ता कभी निर्वासना को प्राप्त नहीं होता । परन्तु शरणागत निर्वासना को प्राप्त होता है । वासनायुक्त प्राणी शरणापन्न नहीं हो सकता अथवा यों कहो कि शरणागत में वासना शेष नहीं रहती ।

        यदि कोई यह कहे कि शरण्य की वासना भी वासना है । तो विचार दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि शरणागत की शरण्य आवश्यकता है, वासना नहीं; क्योंकि वासना का जन्म भोगासक्ति एवं प्रमाद से होता है और आवश्यकता भोगासक्ति मिटने पर जाग्रत होती है । जिस प्रकार सूर्य का उदय एवं अन्धकार की निवृत्ति युगपत् है, उसी प्रकार भोगासक्ति की निवृत्ति और आवश्यकता की जागृति युगपत् है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि शरण्य की आवश्यकता वासना नहीं है । यद्यपि आवश्यकता की सत्ता कुछ नहीं, परन्तु प्रेमास्पद को न जानने की दूरी के कारण प्रेमपात्र ही आवश्यकता के रूप में प्रतीत होता है, जिस प्रकार धन की आवश्यकता ही निर्धनता है । इसी कारण विरही शरणागत भक्त विरह के रस में मुग्ध रहता है ।

        शरणापन्न की सार्थकता तब समझनी चाहिए, कि जब शरण्य शरणागत हो जाए, क्योंकि प्रेमी की पूर्णता तभी सिद्ध होती है, जब प्रेमपात्र प्रेमी हो जाता है । प्रेमपात्र के प्रेमी होने पर प्रेमी प्रेमपात्र के माधुर्य से छक जाता है । शरण्य के माधुर्य का रस इतना मधुर है कि शरणागत, शरणागत-भाव का त्याग न करने के लिए विवश हो जाता है । बस, यही भेद-भाव की शरणागति है। जब भेदभाव की शरणागति सिद्ध हो जाती है, तब शरण्य शरणागत को स्वयं बिना उसकी रुचि के उसी प्रकार अपने से अभिन्न कर लेते हैं, जिस प्रकार चोर बिना ही इच्छा के दण्ड पाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 32-33) ।

Friday 9 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 09 August 2013  
(श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        शरणागत होते ही, सबसे प्रथम अहंता परिवर्तित होती है ।  'शरणागति' भाव है, कर्म नहीं । भाव और कर्म में यही भेद है कि भाव वर्तमान में ही फल देता है और कर्म भविष्य में । भावकर्ता ‘भाव’ स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकता है, किन्तु कर्म संगठन से होता है । संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, क्योंकि अनेक निर्बलताओं का समूह ही वास्तव में 'संगठन' है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से, अपने से भिन्न की सहायता की खोज करना 'संगठन' है ।

        शरणागति दो- प्रकार की होती है- भेदभाव की तथा अभेदभाव की । भेदभाव की शरणागति शरण्य अर्थात् प्रेमपात्र की स्वीकृति मात्र से ही हो सकती है, किन्तु अभेद-भाव की शरणागति शरण्य के यथार्थ-ज्ञान से होती है । अभेद-भाव का शरणागत, शरणागत होने से पूर्व ही निर्विषय हो जाता है, केवल लेशमात्र अहंता शेष रहती है, जो शरण्य की कृपा से निवृत्त हो जाती है । भेदभाव का शरणागत, शरणागत होते ही अहंता का परिवर्तन कर देता है अर्थात् जो अनेक का था वह एक का होकर रहता है । 

        शरणागत के हृदय में यह भाव, कि मैं उनका हूँ, निरन्तर सद्भावपूर्वक रहता है । यह नियम है कि जो जिसका होता है, उसका सब कुछ उसी का होता है तथा वह निरन्तर उसी के प्यार की प्रतीक्षा करता है । प्रेमपात्र के प्यार की अग्नि ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों शरणागत की अहंता उसी प्रकार तद्रूप होती जाती है, जिस प्रकार लकड़ी अग्नि से अभिन्न होती जाती है । अहंता के समूल नष्ट होने पर भेदभाव का शरणागत भी अभेद-भाव का शरणागत हो जाता है ।

        भेदभाव का शरणागत भी शरण्य से किसी भी काल में विभक्त नहीं होता, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री पिता के घर भी पति से विभक्त नहीं होती ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 31) ।

Thursday 8 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 08 August 2013  
(श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

शरणागति-तत्त्व

        'शरण' सफलता की कुन्जी है, निर्बल का बल है, साधक का जीवन है, प्रेमी का अन्तिम प्रयोग है, भक्त का महामन्त्र है, आस्तिक का अचूक अस्त्र है, दुःखी की दवा है, पतित की पुकार है । वह निर्बल को बल, साधक को सिद्धि, प्रेमी को प्रेमपात्र, भक्त को भगवान्, आस्तिक को अस्ति, दुःखी को आनन्द, पतित को पवित्रता, भोगी को योग, परतन्त्र को स्वातन्त्र्य, बद्ध को मुक्ति, नीरस को सरसता और मर्त्य को अमरता प्रदान करती है ।

        प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी के शरणापन्न रहता है, अन्तर केवल इतना है कि आस्तिक एक के और नास्तिक अनेक के । आस्तिक आवश्यकता की पूर्ति करता है और नास्तिक इच्छाओं  की । आवश्यकता एक और इच्छाएँ अनेक होती हैं। आवश्यकता की पूर्ति होने पर पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इच्छाओं की पूर्ति होने पर पुन: उत्पत्ति होती है । इच्छाकर्ता बेचारा तो प्रवृत्ति द्वारा केवल शक्तिहीनता ही प्राप्त करता है । अत:  'शरणागत' शरण्य की शरण हो, इच्छाओं की निवृत्ति एवं आवश्यकता की पूर्ति कर कृतकृत्य हो जाता है ।

        आवश्यकता उसी की होती है, जिसकी सत्ता है और इच्छा का जन्म प्रमादवश आसक्ति से होता है, इसी कारण उसकी निवृत्ति होती है, पूर्ति नहीं होती । साधारण प्राणी इच्छा और आवश्यकता में भेद नहीं जानते । परन्तु विचारशील जब अपने जीवन का अध्ययन करता है, तब उसे इच्छा और आवश्यकता में भेद स्पष्ट प्रत्यक्ष हो जाता है । यदि आवश्यकता और इच्छा में भेद न होता, तो आस्तिकता उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इच्छायुक्त प्राणी विषय-सत्ता से भिन्न कुछ नहीं जानता ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 30) ।

Wednesday 7 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 07 August 2013  
(श्रावण शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        भोग से अरुचि होने पर योग और भोग का अन्त होने पर तत्व-ज्ञान अर्थात् नित्य-जीवन का अनुभव होता है। 'योग' स्थिति है, 'ज्ञान' स्वरूप है । स्थिति का उत्थान होता है, पर स्वरूप का उत्थान नहीं होता । निर्विकल्प-स्थिति आदि सभी अवस्थाएँ हैं । हाँ, 'निर्विकल्प-स्थिति' जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं सविकल्प-स्थिति आदि सभी अवस्थाओं से श्रेष्ठ अवश्य है । परन्तु निर्विकल्प-ज्ञान होने पर हम अपने में किसी प्रकार का अवस्था-भेद नहीं पाते अर्थात् सभी अवस्थाओं से अतीत हो जाते हैं । निर्विकल्प ज्ञान स्वरूप है और निर्विकल्प-स्थिति अवस्था है । स्वरूप का उत्थान नहीं होता, क्योंकि तीनों प्रकार के शरीरों-स्थूल, सूक्ष्म, कारण - से पूर्ण असंगता होने पर स्वरूप-ज्ञान होता है । निर्विकल्प-स्थिति में कारण शरीर से लेशमात्र सम्बन्ध रहता है, इसी कारण दीर्घकाल समाधिस्थ रहने पर भी उत्थान सम्भव है ।

        यह नियम है कि अवस्थाओं से सम्बन्ध बने रहने पर किसी प्रकार भी सीमित अहंभाव का अन्त नहीं होता, जो निर्बलता, परतन्त्रता आदि सभी दोषों का मूल है । विचार-दृष्टि से देखने पर यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि बड़ी से बड़ी अवस्था भी किसी अवस्था की अपेक्षा ही श्रेष्ठ होती है । अवस्था-भेद मिटते ही हम नित्य-जीवन एवं नित्य-जागृति का अनुभव कर अमरत्व को प्राप्त होते हैं अर्थात् हम अपने परम प्रेमास्पद को अपने से भिन्न नहीं पाते; वियोग का भय लेशमात्र भी नहीं रहता । विश्व केवल हमारी एक अवस्था के सिवाय और कुछ अर्थ नहीं रखता । अत: विश्व तथा विश्वनाथ दोनों को हम अपने में ही पाते हैं ।

ओ३म् आनन्द ! आनन्द !! आनन्द !!!

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 29) ।

Tuesday 6 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 06 August 2013  
(श्रावण अमावस्या, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        अब विचार यह करना है कि हमारी निर्बलताएँ किस प्रकार मिट सकती हैं । जिस प्रकार बालक के रोने से ही चोर भाग जाता है उसी प्रकार निर्बलता को 'निर्बलता' जानने पर निर्बलता भाग जाती है, क्योंकि वह हममें उसी समय तक निवास करती है, जब तक हम उसे अपनी दृष्टि से देख नहीं पाते। यदि निर्बलता हमारी निज की वस्तु होती; तो उसके मिटाने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । यदि उसके मिटाने का प्रश्न उत्पन्न हो रहा है, तो इससे यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि उससे हमारी जातीय भिन्नता है, एकता नहीं है । एकता तो केवल प्रमादवश स्वीकार कर ली गई है । यह स्वीकृति कब से है और क्यों है, इसका कुछ पता नहीं । परन्तु जिससे जातीय भिन्नता है, उसका अन्त हम अवश्य कर सकते हैं ।

        सभी अस्वाभाविक संयोग, जो केवल स्वीकृति से जीवित हैं, निरन्तर स्वाभाविक वियोग की अग्नि में जल रहे हैं । यदि हम संयोग-काल में ही वियोग का अनुभव कर ले, तो संयोग से उत्पन्न होने वाला रस हम पर अपना अधिकार न कर सकेगा। उसके अधिकार न करने से भोगत्व नष्ट हो जाएगा और हमें स्वाभाविक नित्य-योग प्राप्त हो जाएगा । शक्ति-संचय करने के लिए योग कल्पतरु के समान है । यदि सब प्रकार की निर्बलताओं का अन्त करने के लिए सद्भावपूर्वक हमारी अभिलाषा उत्पन्न हो गई है, तो हमको अपने प्रेमपात्र निज-स्वरूप से योग द्वारा वह शक्ति अवश्य मिल जाएगी जिससे सभी निर्बलताओं का नितान्त अन्त हो जाएगा ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 28) ।

Monday 5 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 05 August 2013  
(श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        गहराई से देखिए, कर्म से उत्पन होने वाली प्रत्येक परिस्थिति तथा अवस्था दुःखमय व अपूर्ण है । उस दुःखमय अवस्था में भी आप अपने से अधिक दुखियों को देखकर सुख का रस ले लेते हैं । तो भला बताओ, वह सुख आपके कर्म का फल हुआ अथवा दुखियों का दिया हुआ प्रसाद ?

        हम परम प्रिय दुखियों की सत्ता से ही सुखरूप थकावट का रस ले लेते हैं । क्या हम अपनी दृष्टि में तब तक ईमानदार हो सकते हैं, जब तक परम प्रिय दुखियों को न अपना लें ? कदापि नहीं । सुख की सार्थकता यही है कि दुखियों के काम आ जाएँ। क्या यही हमारी योग्यता है कि जिन सुखियों से हम दुःखी होते हैं, उनका दासत्व स्वीकार करें और जिन दुखियों की कृपा से सुख तथा आनन्द दोनों ही पाते हैं, उनको तिरस्कार कर अपने को अभिमान की अग्नि में जलाएँ ? हमारी इस योग्यता को अनेक बार धिक्कार है !

        हम अपनी निर्बलता छिपाने के लिए बेचारे दुःखी प्राणियों पर पशुबल से शासन करते हैं और अपने से अधिक शक्तिशालियों का दासत्व स्वीकार करते हैं । हमारा पशुबल न तो हमारी निर्बलता को ही छिपा सकता है और न दुखियों को छिन्न-भिन्न कर सकता है, क्योंकि जिस निर्बलता को हम अपने से ही नहीं छिपा सकते, भला उसे विश्व से कैसे छिपा सकते हैं? जैसे पृथ्वी में छिपा हुआ बीज बृहत् रूप धारण कर लेता है । वैसे ही हममें छिपी हुई बुराई बृहत् रूप धारण कर लेती है ।

        निर्बलता मिटाई तो जा सकती है, परन्तु छिपाई नहीं जा सकती । दुखियों के शरीर आदि वस्तुओं को 'छिन्न-भिन्न कर देने से उनका अन्त नहीं हो जाता, क्योंकि सूक्ष्म तथा कारण शरीर शेष रहते हैं । यदि हम किसी के स्थूल शरीर को नष्ट भी कर दें, तो भी वह प्राणी जिस भाव को लेकर स्थूल शरीर का त्याग करता है, उसी भावना के अनुरूप प्रकृति माता से अथवा यों कहो कि जगत्-कारण से शक्ति संचय कर, हमसे अधिक शक्तिशाली हो, हमारा विरोध करने के लिए हमारे सामने आ जाता है । अत: हम पशुबल से दुखियों को छिन्न-भिन्न भी नहीं कर सकते और न अपनी निर्बलता को छिपा या मिटा सकते हैं। हमारे इस पशुबल को बार-बार धिक्कार है !

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 27-28) ।

Sunday 4 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 04 August 2013  
(श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        जिस प्रकार प्रकाश अन्धकार को खा लेता है, उसी प्रकार विचार अविचार को खा लेता है । अविचार के मिटते ही अविचार का कार्य अर्थात् 'राग-द्वेष' त्याग और प्रेम में बदल जाता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं रहता ।

        जैसे भूख भोजन को खा लेती है या जिस प्रकार आयु की पूर्णता आयु नहीं बल्कि मृत्यु होती है, उसी प्रकार त्याग और प्रेम की पूर्णता यथार्थ-ज्ञान होता है । यह नियम है कि नित्य-जीवन से भिन्न उत्पन्न होने वाली सभी सत्ताएँ उसी समय तक जीवित रहती हैं, जब तक पूर्ण नहीं होतीं । पूर्ण होने पर उनसे अरुचि होकर स्वाभाविक अभिलाषा जाग्रत हो जाती है ।

        सुख और दुःख दोनों ही अनित्य जीवन की वस्तुएँ हैं । सुख प्राणी को परतन्त्रतारूप सुदृढ़ शृंखला में बाँध लेता है । गहराई से देखिए, ऐसा कोई सुख नहीं होता कि जिसका जन्म किसी के दुःख से न हो । इस दृष्टि से सभी सुखी दुखियों के ऋणी हैं, क्योंकि सुख दुखियों की दी हुई वस्तु है । यदि हम सुखी प्राणी दुखियों की दी हुई वस्तु  दुखियों को सम्मानपूर्वक भेंट न करेंगे तो हम दुखियों के ऋण से मुक्त नहीं हो सकते । भला, कहीं ऋणी प्राणी को शक्ति तथा शान्ति मिल सकती है ? कदापि नहीं।

        जब हम विचार करते हैं, तो हमको यही ज्ञात होता है कि हमको सुख भी दुखियों की कृपा से मिला था और सुख के बन्धन से हम दुखियों की सेवा से ही छुटकारा पा सकते हैं । इस दृष्टि से दुःखी हमारे लिए परम आदरणीय हैं । यदि कोई यह कहे कि सुख तो हमारे कर्म का फल है, तो भला बताओ तो सही कि आप जिस अंश में किसी दूसरे को दुःखी नहीं पाते, क्या उस अंश में आप सुख का अनुभव करते हैं ? कदापि नहीं

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 26) ।