Monday 27 August 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 27 August 2012  
(अधिक-भाद्रपद शुक्ल एकादशी , वि.सं.-२०६९, सोमवार)

 (गत ब्लागसे आगेका)
पालन-पोषण व शिक्षा पाकर ही मानव कुछ देने के योग्य होता है । इससे स्पष्ट है कि लिया हुआ देना है । परिवार के जो सदस्य समर्थ हैं वे असमर्थ बालकों और वृद्धों की सेवा करें। यह सद्भावना समाज के लिए उपयोगी है । जिसकी सेवा की जाती है उसकी अपेक्षा सेवा करनेवाले का अधिक विकास होता है।

सम्पन्न व्यक्ति दुखियों के काम आयें - क्योंकि समस्त बल निर्बलों की धरोहर है । सबके भले में ही अपना भला है । सबल व निर्बल की एकता ही समाज का सुन्दर चित्र है ।

संसार उसी को प्यार करता है जो दूसरों के काम आता है। और संसार के काम वही प्राणी आता है जो सब प्रकार से भगवान् का हो जाता है ।

पूर्ण जीवन क्या है ?- शरीर विश्व के काम आ जाए,हृदय प्रीति से छका रहे और अहम् अभिमान शून्य हो जाय।

अपनी व्यक्तिगत कोई भी वस्तु नहीं है, और एक सत्ता के सिवाय कुछ भी नहीं है । 


॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥

- (शेष आगेके ब्लागमें)

Wednesday 22 August 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 22 August 2012  
(श्रावण अधिक-भाद्रपद शुक्ल पंचमी , वि.सं.-२०६९,बुधवार) 
(गत ब्लागसे आगेका)
  सब साधनों का सार

1. भक्ति : सब प्रकार से प्रेम के पात्र हो जाओ यही भक्ति है

2. मुक्ति : अपनी प्रसन्नता के लिए किसी अन्य की ओर मत देखो । यही मुक्ति है

3. त्याग : संसार की दासता मन से निकाल दो यही त्याग है

4. जो कुछ हो रहा है, वह मंगलमय विधान से हो रहा है - ऐसा मान लेने से निश्चिन्तता आती है

5. जो शरीर, प्राण आदि वस्तु व्यक्ति को अपना नहीं मानता - वह निर्भय हो जाता है ।

6. जो "है" (भगवान्) वही मेरा अपना है - इसमें जिसने आस्था स्वीकार कर ली, उसी में प्रियता उदित होती है

7. निश्चिन्तता से शान्ति, निर्भयता से स्वाधीनता तथा प्रियता से रस की अभिव्यक्ति होती है । यही मानव की माँग (लक्ष्य) है

8. उसे सब कुछ मिल जाता है जो किसी का बुरा नहीं चाहता है ।

9. कार्य उसी का सिद्ध होता है, जो दूसरों के काम (न्यायोचित काम) आता है ।

10. मोहयुक्त क्षमा, क्रोधयुक्त त्याग और लोभयुक्त उदारता निरर्थक है ।

11. भाव में पवित्रता हो, कार्य में कुशलता हो और लक्ष्य (परमात्मा) पर दृष्टि हो, तो प्रत्येक प्रवृति से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) .......

Tuesday 21 August 2012

धर्म

                 धर्म

जिस प्रवर्ती में त्याग तथा प्रेम भरपूर  है , वही वास्तव में धर्म है ।  संत समागम २/२७९

जो प्रवर्ती धर्मानुसार की जाती है, उसमे भाव का मूल्य होता है क्रिया का नहीं । भाव को मिटा कर क्रिया को मूल्य देना पशुता है ।  संत समागम २/२७८

धर्म का मतलब है जो नहीं करना चाहिए,  उसको छोड़ दो तो जो करना चाहिये, वही होने लगेगा ।   संतवाणी ५/१७९

आप जानते है मजहब की आवस्यकता  क्यों होती है ? अपने जाने हुए असत का त्याग करने के लिए ।  जीवन पथ १३१-१३२

धर्म एक है अनेक नहीं । जिस प्रकार रेलवे स्टेशन पर मुसलमान के हाथ में होने से ;मुसलमान पानी' और हिन्दू के हाथ में होने से 'हिन्दू पानी'  कहलाता है , यदपि बेचारा पानी न तो हिन्दू होता है न मुसलमान । उसी प्रकार जब लोग धर्मात्मा को किसी कल्पना में बांध  लेते है, तब उसके नाम से उस धर्म को कहने लगते है ।   संत समागम १/५८

सभी बंधन प्राणी  में उपस्थित है, परिस्थिति में नहीं । प्रतिकूल परिस्थिती का भय नास्तिक अर्थात धर्म रहित प्राणियो को होता है । धर्मात्मा प्रतिकूल परिस्थितियो से नहीं डरता, प्रत्युत उसका सदुपयोग करता है ।    संत समागम २/२८०

मानवमात्र का धर्म भिन्न नहीं हो सकता । मानवमात्र का धर्म एक ही है ।  संत वाणी ८/१११

धर्म माने संसार के काम आ जाओ । और संसार के काम कैसे आओगे ? इस सत्य को स्वीकार करो की मन से, वाणी से, कर्मे से, कभी किसी को हानि नहीं पंहुचाउंगा  । संत वाणी ८/१०९

Monday 20 August 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 20 August 2012  
(श्रावण अधिक-भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

             धन

        धन संग्रह से कोई निर्धनता मिट जाये - यह बात नहीं है । (संतवाणी 5/231)

      जब तक भौतिक मन में 'अर्थ'  का महत्व है, तब तक उसका अपव्यय मन में खटकता है और उसकी प्राप्ति सुखद प्रतीत होती है ।  (पाथेय 30)

       क्या कर्जा बाटने वाला गरीब नहीं है । कर्ज लेने वाला ही गरीब है क्या ? सोचो जरा इमानदारी से । (संतवाणी  8/14)

        कुछ लोग तो यही घमंड  करते हैं कि हमारे पास सम्पत्ति सबसे अधिक है । उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि हममें बेसमझी सबसे अधिक है । विचार करे, सम्पत्ति के आधार पर जो तुम्हारा महत्व है, शायद  उससे अधिक बेसमझी और कही नहीं मिल सकती ।  (संतवाणी 7/122)

        संग्रह का अधिकार उन्ही  लोगो को है, जो अपने  लिए संग्रह नहीं करते ।  (मानव दर्शन 147)

        श्रम को सिक्के में बदलने से श्रम का महत्व नहीं बढ़ता।   (दर्शन और निति 54)

       निर्धन वह है जिसे, दूसरे का धन अधिक दिखाई देता है और अपना धन कम दिखाई देता है ।    (संत समागम 2/72)

         बाहर से जितना इकट्ठा करोगे, उतने ही भीतर से  गरीब होते चले जाओगे ।   (संतवाणी 8/17)

        धन का संग्रह करने की सामर्थ्य जिसमें होती है, उसमें धन का सदुपयोग करने की योग्यता नहीं होती । ऐसा नियम ही है । यदि सदुपयोग करना आ जाये तो वह संग्रह कर ही नहीं सकता ।  (संतवाणी 7/184)

        सिक्के से वस्तुओं का , वस्तुओं से व्यक्ति का,  व्यक्तियों से विवेक का और विवेक से उस नित्य जीवन का, जो परिवर्तन से अतीत है, अधिक महत्व है ।   (संत समागम 2/91)

        जिसके पास धन न हो, उसको दान  करने का संकल्प नहीं उठने देना चाहिए । ...... दान तो संग्रह करने का टैक्स है ।   (संत सौरभ 78)

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'क्रान्तिकारी संतवाणी' पुस्तक से ।

Sunday 19 August 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 19 August 2012
(श्रावण अधिक-भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
     त्याग

        एक शरीर को लेकर कुटिया में  बंद कर दिया और हम त्यागी हो गए । मैं तो कहूँगा की तुम्हारे बाप भी त्यागी नहीं हो सकते । यदि पूछो क्यों त्यागी नहीं हो सकते ? तो कहना होगा की अपने अपने (अहम् का) त्याग तो किया नहीं । भाई मेरे अगर त्याग करना हो तो अपना त्याग करो । और प्रेम करना हो तो सभी को प्रेम करो । और यदि अपने-आप का त्याग नहीं कर  सकते तो आप संसार का भी त्याग नही कर सकते ।    (प्रेरणा पथ 187)

        त्याग क्या है ? मैं शरीर  और संसार से अलग हूँ । इसका फल क्या है ? अचाह होना, निर्मम होना और निष्काम  होना ।    (संत उदबोधन 105)

        त्याग का अर्थ है किसी वस्तु को अपना मत मानो । स्थूल, सूक्ष्म और कारण शारीर से  सम्बन्ध मत रखो । कर्म, चिन्तन एवं स्थिति किसी भी अवस्था में जीवन-बुद्धि मत रखो । किसी का आश्रय मत लो । किसी से सुख की आशा मत करो ।   ( संत उदबोधन 161)

        ममता, कामना और तादात्मय के त्याग का नाम 'संन्यास' है।   (संत उदबोधन 190)

        मानव का अपना हित तो त्याग में है ।  (मानव दर्शन 129)

        शरीर और संसार को छोड़ने का प्रश्न नहीं है । प्रश्न है कि शरीर और संसार से हमारा सम्बन्ध  न रहे ।  (संतवाणी 8/151)

        मोहयुक्त क्षमा और क्रोधयुक्त त्याग निरर्थक है ।  (संत समागम 2/344)

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'क्रान्तिकारी संतवाणी' पुस्तक से।

Saturday 18 August 2012

रोग

रोग

रोग शारीर की वास्तविकता समजहाने  के लिए आता है।   संत पत्रावली  १/११९

रोग पर वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो शरीर  से असंगता का अनुभव कर लेता है  ।   संत पत्रावली  १/१२४

जब प्राणी तप नहीं करता, तब उसको रोग के स्वरुप  में तप करना पड़ता है ।  संत पत्रावली  १/१४९

प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिंतन , अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है ।  साधन त्रिवेणी ६१

वास्तव में जीवन की आशा ही परम रोग है और निराशा ही  अरोग्यता है । देहभाव का  त्याग  ही सच्ची औसधि  है  ।  संत पत्रावली  २/३६

रोग प्राकृतिक तप है । उससे डरो मत । रोग भोग की रूचि का नाश तथा देहाभिमान गलाने के लिए आता है । इस द्रिस्टी से रोग बड़ी अवश्यक  वस्तु है ।  संत पत्रावली  २/१७०

सभी रोगों का  मूल एकमात्र राग है ।   पाथेय ४८ 

जो भोगी होता है , वह रोगी अवश्य होता है । यह नियम है ।  संतवाणी ५/१९२

रोग से शारीर की वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है, जिससे भोग वासनाओ के त्याग करने की शक्ति आ जाती है ।  संत समागम २/३००

Friday 17 August 2012

योग

योग


योग कब होता है ? की जब आपका शरीर  से संबंध नहीं रहता |   संत वाणी ५/२०३

राग रहित होते ही सबको योग मिल जायेगा |   संत वाणी ४/११९

भोग की रूचि रहते हुए योग की उपलब्धि संभव नहीं है |  चित शुद्धि २४७

भोग का अत्यन्त अभाव हो जाना ही वास्तव में योग है |  संत समागम १/५४

योग की शक्ति संचय होती है, तत्व साक्षात्कार  नहीं |   संत समागम १/२४९

भोग बुधि का अन्त होते ही योग बिना ही प्रयत्न  हो जाता है |   संत समागम १/२६९

योग तो शारीर विज्ञान और मनो विज्ञान- इन दोने से परे है |   संत वाणी २/३९

योग की इस परिभाषा पर गौर  कीजिये की सृष्टी का अपने लिए उपयोग करना भोग है, सृष्टी की सेवा में अपने तो त्याग देना योग है | परमात्मा को अपना मांगना योग है, परमात्मा से कुछ मांगना भोग है |    संत वाणी ७/७७

पराश्रय और परिश्रम  से रहित तथा हरी-आश्रय  और विश्राम के द्वारा जो जीवन है, वह जीवन जिसे पसंद है, वह योगी है | योग का उपाय क्या है ? हरी-आश्रय  और विश्राम |   संत वाणी ३/१२३



Thursday 16 August 2012

ज्ञान

                                                                            ज्ञान


ज्ञान का सर्वोत्तम साधन केवल विचार है |  संत पत्रावली  १/९३

ज्ञान असत का होता है , प्राप्ति सत की होती है |   मानव दर्शन ९५

अल्प ज्ञान का दूसरा नाम अज्ञान है | अज्ञान का  अर्थ 'ज्ञान का अभाव' नहीं है |   मानव की  मांग  ६९   

अनुभव से पूर्व मान लेना आस्था है, ज्ञान नहीं | विकल्प रहित आस्था ज्ञान के समान प्रतीत होती है |  मूक सत्संग ८२

जो साधक अपने ज्ञान का आदर नहीं करता, वह गुरु और ग्रन्थ के ज्ञान का भी आदर नहीं कर सकता | जैसे जो नेत्रों के प्रकाश का उपयोग नहीं करता, वह सूर्य के प्रकाश का भी उपयोग नहीं कर पाता |   जीवन दर्शन २५८

अपने प्रति होने वाली बुराईओ  का ज्ञान जिस ज्ञान में है, वही ज्ञान मानव का वास्तव में पथ प्रदर्शक है | दर्शन और निति १५१

यह नियम है की जब तक अपना ज्ञान अपने काम नहीं आता, तब तक अन्य के द्वारा सुना हुआ ज्ञान भी जीवन नहीं हो पाता |  साधन तत्व २४

संतो का ज्ञान,आपका ज्ञान, और वेदों का ज्ञान   इनमे एकता है |  संत वाणी ५/१७८

भूल न जानने में नहीं है , प्रत्युत  जाने हुए को न मानने में है | चित शुद्धी १९७

कर्म ज्ञान का साधन नहीं होता, बल्कि भोग का दाता होता है | संत समागम १/२१६

Wednesday 15 August 2012

कामना

                                                                   कामना


कामना के  रहते  जिज्ञासा  पूरी  नहीं  होती | संतवाणी ४/७३

अचाह होना जीते जी मरना है |   संतवाणी ३/९४

अगर हम अचाह हो जाये और मरने से न डरे तो अमर जीवन मिलता है |  संतवाणी ३/९१

कामना अगर पूरी होती है तो विधान से, कामना से नहीं | वस्तु यदि रहती है तो विधान से ममता से नहीं |  संतवाणी ६/१९

जो कुछ नहीं चाहता, वही अभय होता है  और दुसरो को अभय बनता है |   संतवाणी ७/१३६

अपना मूल्य संसार से अधिक बढाओ, आप  अचाह हो जायेंगे  | संत उदबोधन ९ 

कामनापूर्ति में पराधीनता है, त्याग में नहीं |  साधन निधि १३

किसी अभ्यास से कामनाओ का नाश नहीं होता |   साधन निधि १२

संसार से संबंध है सेवा करने के लिए और परमात्मा से सम्बन्ध है प्रेम करने के लिए | न संसार से कुछ चाहिए, न परमात्मा से कुछ चाहिए |  संत उदबोधन १२ 

हे प्यारे, तुम अपने हो ! तुमसे और कुछ नहीं चाहिए | क्यों नहीं चाहिए ? क्योकि अपनेपन से बढ़कर भी कोई और चीज होती तो हम जरुरु मांगते  |  जीवन पथ २८

Tuesday 14 August 2012

गुरु

गुरु 


जो किसी का भी गुरु बनेगा, वह अपना गुरु नहीं बन सकता और जो अपना गुरु नहीं बन सकता, वह जगत का गुरु नहीं बन सकता |  संत वाणी ४/२१

गुरु के मिलने का मालूम है, फल क्या है ? गुरु हो जाना |  संत वाणी ४/१७५

विवेक ही वास्तव में गुरु तत्त्व है | कोई व्यक्ति किसी का गुरु है - इसके सामान कोई भूल ही नहीं है | कोई भी व्यक्ति किसी का भी सुधारक है - इसके सामान  कोई भूल नहीं | मानव का अपना विवेक ही अपना सुधारक है, वही उसका गुरु है, वही उसका नेता है, वही उसका शासक  है |  संत वाणी ५/२५२

गुरु की सबसे बड़ी भक्ति यह है की गुरु मिलना चाहे और सिष्य कहे की जरुरत नहीं है ; क्योकि जिसने गुरु की बात को अपनाया,उसमे गुरु का अवतरण हो जाता है |  संत वाणी ७/१४९

सच्चा गुरु वही है, जिसके जीवन से साधको को प्रकाश मिलता है | सिद्धांत की  चर्चा करने मात्र से वास्तव में  गुरु पद नहीं मिल जाता |  जीवन पथ ७८

विवेक को ही ज्ञान कहते है | ज्ञानरूपी जो गुरु है उसकी बात मान लोगे तो शरीर रुपी गुरु की जरुरत नहीं पड़ेगी | साधन त्रिवेणी ७६

अपने दोषों का ज्ञान जितना अपने को होता है उतना अन्य को हो ही नहीं सकता |..... अत दोष देखने और निवारण करने के लिए साधक को अपने ही ज्ञान को अपना गुरु बना लेना चाहिए |  जीवन दर्शन ८१

जो निज  स्वरुप  का आदर  करता  है वह गुरु,  इश्वर तथा संसार आदि को अपने में ही पा लेता है |   संत समागम १/२४०

सास्त्रो    में नेता या गुरु बनने  को पतन का हेतु माना है  | इससे सिद्ध होता है की यह काम महापुरुषों के ही उपयुक्त है | साधको को इस  बखेड़े  में कभी नहीं पड़ना चाहिए | संत सौरभ ५१

गुरु, ग्रन्थ, और सत-चर्चा  साधक में विद्यमान विवेक शक्ति  को विकसित कर सकते है | कोई नयी शक्ति प्रदान नहीं कर सकते |  संत सौरभ ९२

Monday 13 August 2012

कर्तव्य

कर्तव्य


दुखी का कर्तव्य है त्याग और सुखी का कर्तव्य है सेवा |  मानवता की मूल सिद्धांत ५

दुसरे के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार का त्याग वास्तव में कर्तव्य है |   मानव दर्शन १५

जो किसी को भी बुरा समझता  है  तथा किसी का भी बुरा चाहता है एवं जानी हुई  बुराई करता है, वह कभी भी कर्तव्य की वास्तविकता से परिचित नहीं  हो सकता | कर्तव्य पालन से पूर्व कर्तव्य का ज्ञान अनिवार्य है | वह तभी संभव होगा, जब मानव यह स्वीकार कर ले की में किसी को बुरा नहीं समझूंगा   |  मानव दर्शन १२६

निष्काम कर्ता से ही कर्तव्य पालन होता है |  साधन निधि ११

दुसरे का कर्तव्य वही देखता है, जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता | उन्होंने कृपा नहीं की यह कैसे जाना? आपको जो करना है वह कर डालो |  उनको जो करना है वह स्वयं करेंगे |    संत पत्रावली १/८७

जब तक हम अपने मन की बात पूरी करते रहेंगे, तब तक कर्तव्यनिष्ठ  नहीं हो सकेंगे | कर्तव्यनिष्ठ होने के लिए हमे दुसरे के अधिकारों के रक्षा करते हुए अपने अधिकारो का त्याग  करना होगा |  जीवन दर्शन ८८

कर्तव्य पालन में असमर्थता की बात मन में तब आती है, जब हम प्राप्त सामर्थ्य का व्यय सुख भोग में करने लगते है |  चित सुद्धि  १९

अधिकार तो कर्तव्य का दास है | जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, उसको बिना अभिलाषा के भी अधिकार स्वयं प्राप्त  हो जाते है |  संत पत्रावली १/८९

कर्तव्यनिष्ठ होने पर जीवन तथा मृत्यु दोनों सरस हो जाते  है  और कर्तव्यचुय्त  होने पर जीवन नीरस तथा मृत्यु दुखद एवं भयंकर  होती है |   मानव की मांग १८२

Sunday 12 August 2012

सेवा

सेवा

यदि आपको वस्तु नहीं मिलती तो इसका अर्थ यह है की आपने बल दुसरो की सेवा में लगाया  ही नहीं |  संत वाणी ३/३९

सेवक हम कब होंगे ? जब यह अनुभव करे की मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए ?    संत वाणी ७/३७

सेवा करने से मोह का नाश होता है और प्यार पुष्ट   होता है |   संत वाणी ७/१३८

जिसे अपने लिए कुछ नहीं करना होता, वही सेवा कर पता है |   संत वाणी ७/१४८

भलाई का फल मत चाहो , और बुरे रहित हो जाओ, यही तो सेवा का स्वरुप है |  साधन त्रिवेणी २९

भोगी के द्वारा सेवा की बात सेवा का उपहास है, और कुछ नहीं |  मानव दर्शन १४७

सेवा त्याग की भूमि तथा प्रेम की जननी है |  जीवन दर्शन १८९

लोभ और मोह में आबद्ध प्राणी सेवा नहीं कर सकता |  
जीवन दर्शन १८९ 

सेवा का मूल्य प्रभु देता है, संसार नहीं दे सकता |   संत-जीवन-दर्सन ९७

सेवा भाव है कर्म नहीं | इस दृष्टी से छोटी या बड़ी सेवा समान अर्थ रखती है  | सेवा का स्वरुप है प्राप्त सुख किसी दुखी की भेट कर देना और उसके बदले में सेवक कहलाने तक की आशा न करना | चितसुधि २९७

Saturday 11 August 2012

एकता


 एकता

आज हम स्वरुप से एकता करने की जो कल्पना  करते है, वह विवेक की दृष्टी से अपने को धोखा  देना है अथवा भोली-भाली  जनता को बहकाना है | मानव की मांग १४

प्रत्येक व्यक्ति,वर्ग,देश यदि दुसरो की उपयोगिता में प्राप्त वस्तु,सामर्थ्य एवं योग्यता का व्यय करे    तो एक दुसरे  के पूरक हो सकते है  और फिर परस्पर स्नेह की एकता बड़ी ही सुगमतापूर्वक सुरक्षित रह सकती है, जो विकास  का मूल है | मानव दर्शन १७२

शरीर  का मिलन वास्तव में मिलन नहीं है | लक्ष्य तथा स्नेह की  एकता ही सच्चा मिलन है |  संत समागम २/३३६

दो व्यक्तियो के रूचि,सामर्थ्य  तथा योग्यता एक नहीं है; किन्तु लक्ष्य सभी का एक है | यदि इस वैधानिक तथ्य का आदर    किया जाये  तो भोजन तथा साधन की भिन्नता रहने पर भी परस्पर एकता रह सकती है |   मंगलमय विधान २२

अपने गुण और पराये दोष देखने से पारस्परिक एकता सुरक्षित नहीं रहती |  दर्शन और निति ६४

बाह्य भिन्नता के आधार पर कर्म में भिन्नता अनिवार्य है, पर आन्तरिक एकता होने के कारण प्रीति की एकता भी  अत्यंत अवश्यक है |......नेत्रों से जब देखते है, तब पैर से चलते है | दोनों की  क्रियाओ में भिन्नता है, पर भिन्नता नेत्र और पैर की एकता में हेतु  है | उसी प्रकार दो व्यक्तिओ में, दो वर्गों में,दो देशो में एक दुसरे की उपयोगिता के लिए भिन्नता है |  मानव दर्शन १७२ 


Friday 10 August 2012

उपदेश

 उपदेश



उपदेश करने की जो सेवा है वह सबसे नीचे  दर्जे की सेवा है | संतवाणी ४/२२३

आप किसी को वह उपदेश नहीं बता सकते, जो वह नहीं जनता है | जब वह अपना ही जाना हुआ नहीं मानता, तो आपका बताया हुआ मान लेगा ?  संतवाणी ४/२२३

सही बताने का फल यह नहीं था की लोग हमारे पीछे ऐसे  चिपक जाये की पीछा ही न छोड़े | सही बताने का फल यह था का इन्हें हमारी जरुरत न रहे और जो काम हमे उनके साथ किया, वह दुसरो के साथ करने लग जाये | एक स्वाधीनता का साम्राज्य बन जाये |  संतवाणी ४/२२५

यह जो उपदेश करने वाली सेवा है, वह कम से कम की जाये | इस सेवा में मैंने बहुत कठिनाई सही है | आज भी सहनी पढती है |  संतवाणी ४/२२५

जरा सोचो, जिनके निर्णय में तुमको अविचल श्रधा नहीं है, उनके उपदेश से तुम्हारा क्या कल्याण होगा |       संतवाणी ४/२३७

सबसे बड़ा उपदेशक कौन है? जो जीवन से उपदेश करता है | वह सबसे बड़ा वक्ता है ,सबसे बड़ा पंडित है | सबसे बड़ा सुधारवादी है | और सबसे घटिया  कौन है ? जो परचर्चा करके उपदेश करता है | कभी व्यक्ति की चर्चा और कभी परिस्थतियो की चर्चा |  संतवाणी ३/५८

जो मनुष्य नेता  या प्रचारक बन जाता है या उपदेष्टा बन जाता है, उसका चित सुद्ध होना कठिन है | संत सौरभ ५३

कर्तव्य निष्ठ होने से कर्तव्य परायणता फैलती है, सम्ज्हाने  से नहीं, उपदेश करने से नहीं,शासन  करने से नहीं, भय देने से नहीं,प्रलोभन देने से नहीं |  संतवाणी ५/२५१



Thursday 9 August 2012

उन्नति

उन्नति

शरीर  उन्नति के लिए 'सदाचार' परम आवश्यक    है , मानसिक उन्नति के लिए 'सेवा' परम आवश्यक  है, आत्मिक उन्नति के लिए 'त्याग' परम आवश्यक  है |  संत समागम १/३७

आत्मिक उन्नति होने पर और किसी उन्नति की आवस्यकता नहीं रहती |   संत समागम १/१३९

अगर आप भौतिक उन्नति करते है, तोह उसमे सयम,सदाचार,सेवा,त्याग और श्रम होना चाहिए | आस्तिकवाद की उन्नति ,द्रढ़ता, सरल विश्वास और शरणागति से होती है | और अध्यात्मवाद की उन्नति विचार,त्याग और निज ज्ञान के आदर से होती है |  संत समागम २/८२-८३

प्रत्येक उल्जहन उन्नति का साधन है ,डरो मत | उल्जहन रहित जीवन बेकार है | संसार में उन्ही प्राणियों की उन्नति हुई है जिनके जीवन में पग पग पर उल्जहन आई है |  संत समागम २/२२५

अगर तुम दुसरो के लिए बोलते हो, दुसरो के लिए सुंनते हो, दुसरो के लिए सोचते हो , दुसरो के लिए काम करते हो तोह तुम्हारी भौतिक उन्नति होती चली जाएगी | की बाधा नहीं डाल सकता | अगर तुम केवल अपने लिए सोचते हो तो  दरिद्रता कभी नहीं जाएगी |  संत वाणी ८/१७

मैं तोह इस नतीजे पर पंहुचा हु की हम सबका वर्तमान हम सबके विकास के हेतु है ; चाहे दुखमय है वर्तमान, चाहे सुखमय है |  संत वाणी ४/९८

मनुष्य के विकास  में जो प्रेम का विकास है ,वह अंतिम विकास है | स्वाधीनता दुसरे नंबर का विकास है और उदारता तीसरे नंबर का  विकास है | साधन त्रिवेणी ११४

संसार हमारी आवस्यकता  अनुभव करे - यह भौतिक उन्नति है |और हमे  संसार की आवस्यकता न  रहे यह अध्यात्मिक उन्नति है | संत वाणी (प्रश्नोत्तर) ९७

Wednesday 8 August 2012

आस्था

आस्था

संदेह रहते आस्था सजीव नहीं होती | मानव दर्शन १७

यह अवश्यक नहीं है के आस्था विवेक से समर्थित हो, पर यह अवश्यक है के आस्था में विवेक का विरोध न हो |   मानव दर्शन १८

संदेह देखे हुए में होता है, बोध जाने हुए का होता है, और आस्था सुने हुए में होती है |  मानव दर्शन ५३

जब मिला हुआ और देखा हुआ अपने को संतुस्ट नहीं कर पाता, तब स्वाभाव से ही बिना जाने हुए मे आस्था होती है |  मानव दर्शन ८८

अधूरे ज्ञान से जिज्ञासा  जागृत होती है, आस्था नहीं | आस्था एकमात्र उसी में हो सकती है, जिसे कभी भी इन्द्रय तथा बुधि द्र्स्टी    से अनुभव नहीं किया | मानव दर्शन ८८

'नहीं' की  निवर्ती में विचार है, और 'है' की प्राप्ति में आस्था ही समर्थ है |  मानव दर्शन ९५

आस्था 'स्व' के द्वारा होती है | उसके लिए कोई करण अपेक्षित नहीं है |  मानव दर्शन ९७

जिसने आस्था स्वीकार की है, वह कोई करण नहीं है, अपितु  कर्ता है |  मानव दर्शन ९७

आस्था का उपयोग कामना की पूर्ति तथा निवृति में करना आस्था का दुरूपयोग है | आस्था का सदुपयोग एकमात्र आत्मीयता पूर्वक प्रियता की जाग्रति में ही है | मानव दर्शन ९९

आस्था देखे हुए तथा मिले हुए तथा देखे हुए में हो ही  नहीं  सकती, अपितु उसी में हो सकती है, जिसे देखा नहीं है |  मानव दर्शन १०२

मिले हुए का उपयोग किया जा सकता है,उसमे आस्था नहीं की जा सकती | देखे हुए पर विचार किया जा सकता है, आस्था नहीं की जा सकती | सुने हुए में आस्था की जा सकती है , उस पर विचार नहीं किया जा सकता |  साधन निधि ३८

Tuesday 7 August 2012

उदगार

 उदगार


शरीर  सदैव  म्रत्यु में रहता है , और मैं  सदेव अमरत्व मैं  रहता हु , यह मेरा परिचय है | प्रबोधनी १

 अरे दुनिया के दुखियो !  अब देर मत करो  ! व्याकुल ह्रदय से आनंदघन भगवान् को बुलाओ , वे अवश्य  आयेंगे, आयेंगे, आयेंगे |  संत पत्रावली १/७२

हे पतितपावन सर्वसमर्थ भगवान् ! आप अपनी और देख कर अपने इस पतित प्राणी को अपनाइए , जिससे इसका उद्धार तथा आपका नाम सार्थक हो | संत पत्रावली १/८०

तुम यह बात अपने मन से सदा के लिए निकल दो की मेरे समीप आने पर ही मेरी सेवा होगी | तुम जितना  अपने को सुन्दर  बना  लोगे ,उतनी  ही मुझे  प्रसन्नता   होगी और वही  मेरी सच्ची सेवा होगी |  संत पत्रावली २/३५

वास्तव   में तो  मानव  मात्र   के अनुभूति  ही मानव-सेवा-संघ का साहित्य है |   पाथेय १०३ 

जिसने जाने हुए असत के त्याग द्वारा असाधन का अंत कर साधन  परायणता प्राप्त की, उसने तो मेरी बड़ी सेवा की है | जो अपने लिए तथा जगत के लिए एवं प्यारे प्रभु  के लिए उपयोगी है , वही मुझे परम प्रिय है |      पाथेय १३०

तुम कभी अपने स्वरुप को मत भूलो | यही मेरी सर्वोतकर्स्ट  सेवा है |  पाथेय ३२४

गीता के रचियता से मेरा बड़ा भरी सम्बन्ध  है | वे मेरे बड़े मित्र है | मैं गीता का बड़ा आदर करता हु ; क्युकी यह मेरे दोस्त की बातचीत  है |   संतवाणी ७/१६९

मेरा बचा हुआ काम है - सोयी मानवता को जगाना |  संतवाणी ३/४०

- (शेष आगेके ब्लागमें)

Monday 6 August 2012

सन्त हृदय की करूण पुकार

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

 सन्त हृदय की करूण पुकार

 

हे हृदयेश्वर, हे सर्वेश्वर, हे प्राणेश्वर, हे परमेश्वर।
हे हृदयेश्वर, हे सर्वेश्वर, हे प्राणेश्वर, हे परमेश्वर।
हे हृदयेश्वर, हे सर्वेश्वर, हे प्राणेश्वर, हे परमेश्वर।
हे हृदयेश्वर, हे सर्वेश्वर, हे प्राणेश्वर, हे परमेश्वर।
हे हृदयेश्वर, हे सर्वेश्वर, हे प्राणेश्वर, हे परमेश्वर।

हे समर्थ हे करूणासागर विनती यह स्वीकार करो,
हे समर्थ हे करुणासागर विनती यह स्वीकार करो,
भूल दिखाकर उसे मिटाकर अपना प्रेम प्रदान करो।
भूल दिखाकर उसे मिटाकर अपना प्रेम प्रदान करो।

पीर हरो हरि पीर हरो हरि पीर हरो प्रभु पीर हरो।
पीर हरो हरि पीर हरो हरि पीर हरो प्रभु पीर हरो।



॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥