Sunday 15 July 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 15 July 2012  
(श्रावण कृष्ण द्वादशी, कामदा एकादशीव्रत, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी का बुरा न चाहना

        भौतिक बल कभी भी साधन-निधि से सम्पन्न पर विजयी नहीं हो सकता। उसकी दृष्टि में शरीर का रहना, न रहना समान अर्थ रखता है; कारण, कि उसने अपने ही में सब कुछ पा लिया है । उसमें पराधीनता की गन्ध भी नहीं है। यह साधननिष्ठ होने की महिमा है । इस कारण कितना ही भौतिक बल क्यों न हो, यदि मानव साधक होकर साधननिष्ठ हो जाता है, तब किसी सबल का अत्याचार उसे अपनी निष्ठा से विचलित नहीं कर सकता, उसके शरीर आदि वस्तुओं का भले ही नाश कर दे । बल के दुरूपयोग से उसे कोई अपने अधीन नहीं कर सकता। 

        साधन-निधि से सम्पन्न साधक की दृष्टि में शरीर आदि वस्तुओं का नाश कुछ अर्थ नहीं रखता; कारण, कि वह अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है । इतना ही नहीं, सर्वात्मभाव होने के कारण वह बल के दुरूपयोग करनेवाले पर भी अपने प्राणों की आहुति देता हुआ उसकी हित-कामना से उस पर विजयी होता है।

        प्राकृतिक नियमानुसार बल का दुरूपयोग निर्बलता को जन्म देता है, अर्थात् सबल बल के दुरूपयोग के कारण स्वयं निर्बल हो जाता है । हाँ, यह अवश्य है कि जो साधक साधन-निधि से सम्पन्न नहीं है, उसी पर भौतिक बल का प्रहार अपना अधिकार जमाता है । अतः किसी को बुरा न समझ कर, किसी का बुरा न चाह कर तथा किसी के साथ बुराई न करके साधन-निधि से सम्पन्न साधक बल के दुरूपयोग की भावना के नाश करने में समर्थ होता है । पराधीनता से उत्पन्न हुई सुख-लोलुपता उससे सबल के अत्याचार को सहन कराती है, जिसका नाश एकमात्र दुःख के प्रभाव से प्रभावित होकर साधन-निधि से सम्पन्न होने से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 37-38) ।