Monday 30 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 30 April 2012
(वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

      निर्दोष जीवन से ही समाज में निर्दोषता व्यापक होती है ।  निर्दोष साधक दोषयुक्त मानव को देख, करुणित होता है, क्षोभित नहीं। उसे परदुःख अपना ही दुःख प्रतीत होता है और करुणित होकर उसके प्रति क्रियात्मक तथा भावात्मक सहयोग देने के लिए तत्पर हो जाता है ।

        उसका परिणाम यह होता है कि अपराधी स्वयं अपने अपराध को देख, निर्दोष होने के लिए आकुल तथा व्याकुल हो जाता है, और फिर वह बड़ी ही सुगमतापूर्वक वर्तमान निर्दोषता को सुरक्षित रखने में समर्थ होता है । इस प्रकार साधननिष्ठ जीवन से समाज में निर्दोषता व्यापक होती है ।

       बल का दुरूपयोग न करने से ही कर्तव्यपरायणता आती है और फिर उसके द्वारा सभी के अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं, जिससे समाज में कर्तव्यपरायणता की अभिरुचि जाग्रत होती है।

      कर्तव्यनिष्ठ होने की माँग साधक को अकर्तव्य से रहित कर देती है, जिसके होते ही स्वतः कर्तव्यपरायणता आ जाती है। बुराई-रहित होने से बुराई का नाश होता है, किसी अन्य प्रकार से नहीं । इतना ही नहीं, बुराई के बदले में भी जब भलाई की जाती है तब बुराई करनेवाला बुराई-रहित होने के लिए तत्पर हो जाता है।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 28) ।

Sunday 29 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 29 April 2012
(वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

        परिवर्तनशील परिस्थिति मानव का जीवन नहीं हो सकती; कारण, कि जीवन अविनाशी है, विनाशी नहीं। अविनाशी जीवन की उपलब्द्धि किसी परिस्थिति विशेष से सम्बन्ध नहीं रखती । इसी कारण सभी परिस्थितियों में साधक को जीवन की उपलब्धि हो सकती है। इस दृष्टि से साधक का अपना मूल्य प्रत्येक परिस्थिति से अधिक है । पर यह रहस्य तभी स्पष्ट होता है, जब साधक को कर्तव्य-विज्ञान का बोध होता है ।

        यह सभी को मान्य है कि जबतक भूल-रहित होने की तीव्र माँग जाग्रत नहीं होती, तबतक निज-विवेक के प्रकाश में अपनी भूल देखना सम्भव नहीं होता, अर्थात अपने द्वारा अपनी भूल का ज्ञान नहीं होता । भूल के ज्ञान में ही भूल का नाश है । यह मंगलमय विधान है ।

       कर्तव्यनिष्ठ जीवन से दूसरों में अपनी-अपनी भूल देखने की माँग जाग्रत हो जाती है । कर्तव्य-निष्ठ मानव किसी को भयभीत नहीं करता, अपितु भय-रहित होने के लिए सहयोग प्रदान करता है । किसी को भयभीत करने से उसका कल्याण नहीं होता, अपितु किसी-न-किसी अंश में अहित ही होता है । भय देकर कोई भी राष्ट्र अपनी प्रजा को निर्दोष नहीं बना सका, यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 27-28) । 

Saturday 28 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 28 April 2012
(वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

       अब विचार यह करना है कि कोई भी व्यक्ति बुराई क्यों करता है ? कर्म कर्ता का चित्र है और कुछ नहीं, अर्थात् कर्ता में से कर्म की उत्पत्ति होती है। जबतक मानव भूल से अपने को बुरा नहीं बना लेता, तबतक उससे बुराई नहीं होती । बुराई तभी कम हो सकती है, जब कर्ता बुरा न रहे । बुराई के बदले में बुराई करने से उत्तरोत्तर बुराई की वृद्धि होती है । उससे बुराई की निवृति नहीं होती । अतएव बुराई के बदले में भी बुराई न करना बुराई मिटाने में हेतु है ।

       इस दृष्टि से सर्वप्रथम प्रत्येक मानव को अपने को साधक स्वीकार करना अनिवार्य है । फिर अपने और जगत् के सम्बन्ध पर विचार करना चाहिए, तभी कर्तव्य-विज्ञान का भलीभाँती परिचय होगा, जिसके होने पर कर्तव्यपरायणता आएगी, जो जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । 

        कर्तव्यपरायणता प्राप्त परिस्थिति से सम्बन्ध रखती है। इसी कारण उसको पालन करने में मानव सर्वदा स्वाधीन तथा समर्थ है । परन्तु अपने को साधक स्वीकार किए बिना परिस्थिति में जीवन-बुद्धि उत्पन्न होती है, जिसके होने से मानव परिस्थितियों का दास हो जाता है और फिर प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं कर पाता और अप्राप्त परिस्थितियों के चिन्तन में आबद्ध हो जाता है, जो विनाश का मूल है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 26-27) । 

Friday 27 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 27 April 2012
(वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

     बुराई को 'बुराई' जानकर न करना कर्तव्य-विज्ञान का आरम्भ है, किन्तु बुराई की उत्पत्ति ही न हो, यह कर्तव्य-विज्ञान की पूर्णता है ।

      किसी भय से भयभीत होकर बुराई न करना कर्तव्य की ओर अग्रसर होने का सहयोगी उपाय मात्र है, बुराई-रहित होना नहीं है। बुराई-रहित हुए बिना कर्तव्यपरायणता की अभिव्यक्ति ही नहीं होती ।

        बलपूर्वक की हुई भलाई कर्ता में अभिमान को जन्म देती है, जो भारी भूल है । जबतक मानव बलपूर्वक की हुई भलाई के आधार पर जीवित रहता है, तबतक उसमें प्रदोष-दर्शन की रूचि बनी रहती है, जो उसे कर्तव्य-विज्ञान से परिचित नहीं होने देती। इसका परिणाम यह होता है कि वह दूसरों पर शासन करने लगता है, जिसका साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

      शासन के द्वारा समाज में से अकर्तव्य का अन्त नहीं हुआ, यह सभी विचारशीलों का अनुभव है । भूल-जनित वेदना से ही मानव बुराई-रहित होता है । सजगता आने पर ही भूल-जनित वेदना उदित होती है, जो कर्तव्यनिष्ठ बनाने में समर्थ है। अतएव यह निर्विवाद सिद्ध है कि व्यक्ति को समाज के प्रति बुराई नहीं करनी है, अपितु अपने प्रति होनेवाली बुराई का उत्तर भी बुराई से नहीं देना है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 26) । 

Wednesday 25 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 25 April 2012
(वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        पराधीनता से ही विवश होकर मानव वह करने लगता है, जो नहीं करना चाहिए। उससे उत्तरोत्तर पराधीनता की ही वृद्धि होती है । वास्तव में तो जो नहीं करना चाहिए, उसके न करने में ही मानव की स्वाधीनता है, और इसी प्रयोग से पराधीनता नष्ट होती है । इस दृष्टि से स्वाधीनतापूर्वक ही स्वाधीनता की उपलब्धि होती है ।

      स्वाधीन होने के लिए अपनी ओर न देखना और दूसरों से आशा करना भारी भूल है । 'पर' के द्वारा हमें जो कुछ मिलता है, वह पराधीनता में ही आबद्ध करता है । साधक को जगत् के लिए उपयोगी होना है, जगत् से कुछ लेना नहीं है । भला पर-प्रकाश्य, परिवर्तनशील, उत्पत्ति-विनाश-युक्त जगत् से आशा की जाय! वह बेचारा दे ही क्या सकता है ?

        जब साधक किसी को बुरा नहीं समझता, किसी की बुराई नहीं चाहता और किसी भी भय तथा प्रलोभन से बुराई करने के लिए तत्पर नहीं होता, तब उसका जीवन जगत् के लिए अनुपयोगी नहीं रहता, अपितु उपयोगी हो जाता है । यह मंगलमय विधान है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 34) । 

Tuesday 24 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 24 April 2012
(वैशाख शुक्ल अक्षयतृतीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

       अब विचार यह करना है कि व्यक्ति तथा समाज में से असमर्थता का नाश कैसे हो? सर्वहितकारी सद्भावना तथा प्राप्त सामर्थ्य के सदुपयोग से ही असमर्थता मिट सकती है। सामर्थ्य के सदुपयोग से उत्तरोत्तर सामर्थ्य की वृद्धि होती है, यह प्राकृतिक विधान है ।

        सामर्थ्य का दुरूपयोग न करें, इसके लिए यह आवश्यक है कि साधक किसी को बुरा न समझे । दूसरों को बुरा समझने मात्र से ही क्षोभ तथा क्रोध उत्पन्न होता है, जो सामर्थ्य का सदुपयोग नहीं करने देते । इस कारण बड़ी ही सजगतापूर्वक दूसरों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्णय करना चाहिए ।

       असमर्थता का भूल मानव की अपनी भूल है और कुछ नहीं। भूल-रहित करने के लिए साधक को स्वयं भूल-रहित होना अनिवार्य है । अपनी भूल से ही मानव आप पराधीनता में जीवन-बुद्धि स्वीकार करता है और जन्मजात स्वाधीनता से विमुख हो जाता है । 

        जिसमें पराधीनता नहीं रहती, वह असमर्थ नहीं रहता, और जो असमर्थ नहीं रहता, वह मिली हुई सामर्थ्य का दुरूपयोग नहीं करता । इस दृष्टि से पराधीनता का सर्वांश में नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र सत्संग से प्राप्त साधन-निधि से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 33) । 

Monday 23 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 23 April 2012
(वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

         अधिकतर तो सुनकर, अथवा अनुमानमात्र से ही दूसरों को बुरा समझ लिया जाता है । इतना ही नहीं, इन्द्रिय दृष्टि से किसी की वास्तविकता का बोध ही नहीं होता । अधूरी जानकारी के आधार पर किसी को दोषी मान लेना, उसके प्रति अन्याय और अपने में बुराई को जन्म देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । पर यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सभी के प्रति सद्भावना तथा आत्मीयता स्वीकार की है ।

        समस्त दोषों का मूल मानव की अपनी असमर्थता है और कुछ नहीं । असमर्थता जीवन में तब आती है, जब मानव अपने लक्ष्य को भूलता है । लक्ष्य की विस्मृति से ही मिली हुई सामर्थ्य का दुरूपयोग करता है और उसके परिणाम में स्वयं असमर्थ हो जाता है ।

        सामर्थ्य के दुरूपयोग से ही समाज में दोषों की उत्पत्ति होती है । सामर्थ्य का सदुपयोग असमर्थ की असमर्थता मिटाने में है, किसी को असमर्थ बनाने में नहीं । पर इस वास्तविकता को भूल जाने से सामर्थ्य का दुरूपयोग रोकने के लिए मिली हुई सामर्थ्य द्वारा उसे असमर्थ बनाते हैं । उसका परिणाम कभी भी हितकर नहीं होता ।

        थोड़ी देर के लिए ऐसा प्रतीत होने लगता है कि बलपूर्वक सामर्थ्य का दुरूपयोग रोक दिया, पर वास्तव में ऐसा होता नहीं। सामर्थ्य के दुरूपयोग से सभी में असमर्थता की ही वृद्धि होती है और उसकी प्रतिक्रिया सामर्थ्य का दुरूपयोग करने के लिए ही प्रेरित करती है । अतः सामर्थ्य का उपयोग असमर्थता के मिटाने में है, किसी को असमर्थ  बनाने में नहीं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 32-33) । 

Sunday 22 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 22 April 2012
(वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        किसी में बुराई की स्थापना करना, उसके लिए और अपने लिए अहितकर ही है । किसी को बुरा समझने पर अपने में अशुद्ध संकल्पों की उत्पत्ति होती है और क्षोभ तथा क्रोध उत्पन्न होता है, जो कर्तव्य की विस्मृति में हेतु है। अशुद्ध संकल्पों से किसी-न-किसी अंश में अशुद्ध कर्म होने ही लगता है । इस दृष्टि से दूसरों को बुरा समझने से अपने में बुराई उत्पन्न हो जाती है ।

       यदि किसी को बुरा न समझे, तो उसमें अशुद्ध संकल्प उत्पन्न नहीं होते और न वैर-भाव की उत्पत्ति होती है, अपितु समता आ जाती है, जिसके आते ही सर्वात्म-भाव जाग्रत होता है, जो विकास की भूमि है । किसी-न-किसी नाते समस्त विश्व अपना है । अपने में दोष की स्थापना करना, न तो न्याय है और न प्रेम ।

        अब यदि कोई यह कहे कि दोषी न मानने से, उसे भयभीत न करने से दोषी में दोषों की प्रवृति उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहेगी, जो समाज के लिए अहितकर है । पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है; कारण, कि किसी में दोषों की उत्पत्ति होती ही कब है ? जब वह अपने को दोषी बना लेता है ।

        अब विचार यह करना है कि वह अपने को दोषी क्यों बना लेता है ? पर-दोष देख, क्षुभित होने से, अथवा यों कहो कि जब उसके साथ कोई बुराई करता है, तब अपने को निर्दोष मानकर बुराई के बदले में बुराई करने के लिए अपने को बुरा बनाता है। पर उसे इस बातका स्वयं पता नहीं रहता कि बुराई का प्रतिकार करने के लिए मैं स्वयं बुरा हो गया ।

        बुराई का प्रतिकार प्राकृतिक नियमानुसार बुराई करना नहीं है, अपितु क्षमाशील होकर, करूणित होकर उसके प्रति भलाई करना अथवा हित-कामना करना है । सभी के प्रति हित-कामना बिना स्वीकार किए, निर्दोषता व्यापक नहीं हो सकती । इस कारण बुराई-काल में ही यदि हम उसे बुराई न करने दें, आत्मीयतापूर्वक आदर और प्यार दें, करूणित होकर उसकी भूल से स्वयं दुखी हो जाएँ, उसके कर्तव्य की ओर संकेत करें तथा उसे उसकी महिमा से परिचित कराकर हृदय से लगाएँ तो वह अवश्य बुराई-रहित  हो जाएगा ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 31-32) । 

Saturday 21 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 21 April 2012
(वैशाख अमावस्या, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        जब अपराधी भूल-जनित दोष से पीड़ित होता है, तब उसमें से दोष-जनित सुख-लोलुपता मिट जाती है, जिसके मिटते ही पुनः दोष न दोहराने की तीव्र माँग जाग्रत होती है । पर जब उसे दूसरा अपराधी मानने लगता है, तब वह क्षुभित तथा क्रोधित होकर दूसरों के दोष देखने लगता है । दूसरों का दोष देखते ही अपने में से दोषी होने की वेदना शिथिल होने लगती है । इससे उसका और दूसरों का अहित ही होता है ।

         इसी कारण दूसरों के द्वारा किया हुआ न्याय निर्दोषता की स्थापना नहीं कर पाता । परन्तु जब वर्तमान निर्दोषता के आधार पर अपराधी को कोई दोषी नहीं मानता, तब अपराधी स्वयं भूतकाल की भूल को न दोहराने के लिए तत्पर हो जाता है और वर्तमान निर्दोषता में स्थिर होकर सदा के लिए निर्दोष हो जाता है। इस दृष्टि से अपने द्वारा ही अपने प्रति न्याय करना हितकर सिद्ध होता है ।

        यदि अपराधी की वर्तमान निर्दोषता को स्वीकार नहीं किया जाता, तो उसकी अहंता में से अपराधी-भाव निवृत नहीं होता और फिर वह अपराधी होकर अपराध करने में तत्पर हो जाता है।

        सर्वांश में तो कोई अपराधी होता ही नहीं । बड़े-से-बड़े हिंसक में भी किसी न किसी के प्रति करुणा होती है । बेईमान भी अपने साथी के लिए ईमानदार सिद्ध होता है । इतना बुरा कोई हो ही नहीं सकता, जो सभी के साथ सदैव बुराई करे । सर्वांश में निज-ज्ञान का अनादर करना किसी भी मानव के लिए सम्भव ही नहीं है । इस दृष्टि से सर्वांश में कोई दोषी होता ही नहीं, यह प्राकृतिक तथ्य है । अतः किसी को बुरा समझना बुराई करने की अपेक्षा गुरुतर भूल है ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 30-31) । 

Friday 20 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 20 April 2012
(वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        किसी भी साधक को किसी को बुरा समझने का अधिकार ही नहीं है; कारण, कि दूसरे के सम्बन्ध में पूरा जानना सम्भव नहीं है। अधूरी जानकारी के आधार पर निर्णय  देना न्याय नहीं है । न्याय करने का अधिकार किसी व्यक्ति को किसी भी व्यक्ति के प्रति नहीं है । व्यक्ति समाज के अधिकार की रक्षा कर सकता है, किसी के प्रति बलपूर्वक न्याय नहीं कर सकता ।

      न्याय तो प्रत्येक साधक अपने ही प्रति कर सकता है । न्याय का सर्वप्रथम अंग है, "अपराधी अपने अपराध से परिचित हो जाय, अर्थात् अपनी भूल से उत्पन्न अपराध को स्वीकार करे, किन्तु सदा के लिए सर्वांश में अपने को अपराधी न माने ।"

        प्राकृतिक नियमानुसार कोई भी सदा के लिए दोषी होकर नहीं रहना चाहता और सर्वांश में कोई दोषी भी नहीं है । सभी में स्वभाव से ही निर्दोषता की माँग है । आंशिक दोष की उत्पत्ति भूल-जनित है, स्वभाव-जनित नहीं; कारण, कि दोष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 30) । 

Thursday 19 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 19 April 2012
(वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जगत् के लिए उपयोगी होना

         अपने लिए उपयोगी होने पर जीवन जगत् और जगत्पति के लिए उपयोगी होता है, यह निर्विवाद सत्य है। परन्तु अब विचार यह करना है कि जगत् के लिए उपयोगी होने के लिए साधक में किस साधन-निधि की अभिव्यक्ति होती है ? इस सम्बन्ध में विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि जब साधक अपने लिए उपयोगी हो जाता है, तब उसे मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि की अपेक्षा नहीं रहती ।

        उसका परिणाम यह होता है कि उसके द्वारा मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य का दुरूपयोग नहीं होता, अपितु स्वभाव से ही सदुपयोग होने लगता है । इतना ही नहीं, बुराई के बदले में भी वह बुराई नहीं करता । यही कर्तव्य-विज्ञान है । कर्तव्य-विज्ञान से सुन्दर समाज का निर्माण होता है, यह मंगलमय विधान है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 25-26) ।

Wednesday 18 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 18 April 2012
(वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        तो भाई, यह तो प्रेम का साम्राज्य है । प्रेम के साम्राज्य में नित नव-रस है, अगाध अनन्त रस है । यह रहस्य कब समझ में आता है ? जब प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश हो । तो प्रेम के साम्राज्य में कब प्रवेश होता है ? जब साधक प्रेमास्पद के अस्तित्व को निस्संदेहतापूर्वक स्वीकार कर ले। यही प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश होने का उपाय है । हमारे प्रेमास्पद हैं और वे हमारे अपने ही हैं ।

        अब आप सोचिए, प्रार्थना का जो सबसे पहला वाक्य है, उसमें यही है - "मेरे नाथ" । मेरे नाथ का अर्थ क्या है ? कोई और मेरा नहीं है, मैं अनाथ नहीं हूँ । न तो मैं अनाथ हूँ और न कोई मेरा है । भाई, यह तन भी मेरा नहीं है, यह मन भी मेरा नहीं है, यह प्राण भी मेरे नहीं हैं । यह सब कुछ तेरा है और तू केवल मेरा है । यही प्रेम प्राप्ति का सुगम उपाय है ।

        जब कोई अपना है ही नहीं, तो आप विचार करें किसी व्यक्ति से सम्बन्ध रहेगा । लेकिन क्या वस्तु नहीं रहेगी ? तो यह मानना पड़ेगा कि वस्तु रहेगी, उससे सम्बन्ध नहीं रहेगा। वस्तु रहे और उससे सम्बन्ध न रहे, तो क्या हो जाएगा ? कि वस्तु के सम्बन्ध से जो लोभ, मोह, काम आदि जो विकार उत्पन्न हो गया था, वह विकार नाश हो जाएगा ।

        कहने का तात्पर्य मेरा यह था  कि भाई, अब हमारा सम्बन्ध अपने प्रेमास्पद से हो गया, किसी और से नहीं रहा ।

- 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 60)। 

Tuesday 17 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 17 April 2012
(वैशाख कृष्ण वरूथिनी एकादशी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        शान्त रस में दुःख की निवृति है, राग की निवृति है। शान्त रस में राग और दुःख की निवृति है लेकिन अगर कोई शान्ति के रस में सन्तुष्ट हो जाए तो शान्ति के रस में सन्तुष्ट प्राणी अमरत्व की बात नहीं जान पाएगा । जो अमरत्व के रस में सन्तुष्ट हो जाएगा, तो वह प्रेम में जो अगाध, अनन्त, नित नव-रस है, उससे वंचित हो जाएगा ।

        अन्तर क्या है ? आप सोचिए, शान्त रस में चित्त का निरोध है, चित्त की शुद्धि है और ज्ञान के रस में चित्त का बाध है, चित्त की असंगता है और प्रेम के रस में चित्त अपने पास नहीं रहता । योगी का मन शान्त और शुद्ध हो जाता है, ज्ञानी अपने मन से असंग हो जाता है अथवा यों कहो कि ज्ञान से मन का नाश हो जाता है किन्तु प्रेमी का मन प्रेमास्पद के पास रहता है। प्रेमी वही है जिसका मन प्रेमास्पद के पास हो । 

        तो हमारा प्रेमास्पद कैसा है ? सब प्रकार से पूर्ण है, अनन्त है, अपार है, अखण्ड है । तो जब हमारा मन उस अनन्त, अपार के पास चला जाएगा, तो प्रेमी का मन कैसा होगा ? आप्तकाम होगा। इससे तात्पर्य क्या निकला ? तात्पर्य यह निकला कि प्रेमी तो हो जाता है अचाह और प्रेमास्पद में उत्पन्न होती है चाह। यानि कि जो पूर्ण है, उसमें तो चाह उत्पन्न होती है, जो अपूर्ण है, वह चाह-रहित हो जाता है ।

        क्या इसका अर्थ है कि प्रेमास्पद में किसी प्रकार की कमी हो जाती है । कमी नहीं होती । यह प्रेम का स्वभाव ही है कि प्रेम प्रेमास्पद को प्रेमी के अधीन कर देता है । क्योंकि प्रेमी अपने पास मन नहीं रखता, प्रेमी में अपनी करके कोई वस्तु नहीं होती। जहाँ अपनी कोई वस्तु नहीं है, वहाँ प्रेमास्पद कैसे विमुख हो सकता है ? कैसे उससे अलग रह सकता है ? कैसे उसके बिना रह सकता है ? प्रेमास्पद प्रेमी के मन को लेकर अपने प्रेमियों का चिन्तन करता है, प्रेमियों के लिए व्याकुल होता है ।

        तभी तो श्यामसुन्दर उद्धवजी से कहते हैं कि भैया उद्धव, जब से ब्रज छोड़ा है, किसी ने माखन-रोटी नहीं दी, किसी ने दूध के झाग नहीं खिलाए, किसी ने कन्हैया, कन्हैया कहकर नहीं पुकारा, किसी ने गूंजा की माला नहीं पहनाई । यह किसका मन है? यह मैया यशोदा का मन है । तो मैया यशोदा के मन को ले करके कन्हैया ब्रजवासियों के विरह में व्याकुल हैं । और कन्हैया को लेकर ब्रजवासी आप्तकाम हैं, आत्माराम है, नित्यमुक्त हैं। नित्यमुक्त होने पर भी आप्तकाम होने पर भी कन्हैया की विस्मृति नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 58-60) । 

Wednesday 11 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 April 2012
(वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        भोग की माँग जिसमें है, उसमें प्रेम की माँग नहीं हो सकती । योग की माँग जिसमें है, उसमें प्रेम की माँग नहीं हो सकती । ज्ञान की माँग जिसमें है, उसमें प्रेम की माँग नहीं हो सकती । क्योंकि भाई, योग की माँग चिरशान्ति प्रदान करती है, ज्ञान की माँग अमर बनाती है । तो जिसे अमर होना है, जिसे चिरशान्ति में निवास करना है तो बताइये वह प्रेमी कैसे हो सकता है ?

       क्या इसका अर्थ यह है कि प्रेमी भोगी होता है ? नहीं भाई भोगी नहीं होता, होता तो परम योगी है, पर वह योग के रस में आसक्त नहीं होता । क्या प्रेमी अज्ञानी होता है ? अज्ञानी नहीं होता, वह महान तत्वज्ञ होता है परन्तु वह ज्ञान के रस में आबद्ध नहीं होता ।

        तो आप कहेंगे कि योग का रस, ज्ञान का रस और प्रेम का रस - इसमें अन्तर क्या है ? भाई, योग का जो रस होता है वह शान्त रस है । ज्ञान का जो रस है वह अखण्ड रस है और प्रेम का जो रस है, वह शान्त भी है, अखण्ड भी है और अनन्त भी है । तो भाई, प्रेम का रस अनन्त रस है । प्रेम के रस में, योग के रस में, ज्ञान के  रस में स्वरूप से भेद नहीं है, जाती का भेद नहीं है, लेकिन सीमा का भेद है ।

        प्रेम का जो रस है, वह असीम और अनन्त है, ज्ञान का रस असीम और अखण्ड है और योग का जो रस है, वह असीम और शान्त है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 58) । 

Tuesday 10 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 10 April 2012
(वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

आप विचार करें, बहुत गम्भीरता से विचार करें कि जब आपको अपने प्रिय की स्मृति आती है अथवा आप जब यह सुनते हैं कि हमारा प्रेमास्पद हमारा प्रेमी हमारा स्मरण करता है, तो अपनी स्मृति की बात सुन करके आपके-हमारे हृदय में एक रस की वृद्धि होती है । यह बात प्रत्येक भाई को माननी पड़ेगी, प्रत्येक बहन को माननी पड़ेगी कि  जब वह यह सुनता है कि कोई हमारा प्यारा है और जब उसकी याद आती है तो उससे बड़ा रस आता है ।

तो भाई, जो समर्थ प्रेमास्पद है, जब उसकी स्मृति हमारे जीवन में रहेगी तब बताइये, उसे रस मिलेगा या नहीं ? कि जो समर्थ है, उसको रस कब मिलता है ? जब उसकी मधुर स्मृति अखण्ड रूप से बनी रहे । और उसे रस कब मिलता है ? जब उसके मन की बात पूरी हो । अब उसके मन में अच्छी बात है या बुरी बात है, इस बात का विचार प्रेमी में कभी नहीं होता है । 

प्रेमी के जीवन में तो केवल यही बात रहती है कि भाई, प्रेमास्पद के मन में जो हो, सो हो, लेकिन एक बात आप ध्यान रखिए कि प्रेमास्पद हो कौन सकता है? प्रेम का रस कौन चख सकता है ? प्रेम का रस भोगी नहीं चख सकता । भोगी प्रेमास्पद नहीं हो सकता । क्यों ? जो कुछ भी चाहता है, उसको प्रेम नहीं चाहिए। प्रेम उसी को चाहिए जो भोग के रस की लालसा से रहित हो। और जो भोग की लालसा से रहित है, वह व्यक्ति नहीं हो सकता  इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है, कि जो अनन्त है, जो अपार है, जो अखण्ड है, जो सभी का सबकुछ है, सच पूछिए तो वही प्रेमास्पद है।

यह तो दूसरी बात है कि उसी के नाते सभी की सेवा की जाए, सभी का आदर किया जाय, सभी को प्रेम किया जाय । लेकिन प्रेमास्पद कौन है ? कि भाई, प्रेमास्पद तो वही न होगा कि प्रेम जिसकी खुराक हो, प्रेम जिसकी माँग हो, कि जिसकी माँग में भोग की लालसा न हो ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 57-58) । 

Sunday 8 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 08 April 2012
(वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        पवित्र प्रेम में प्रेमास्पद को ही रस देने की उत्कट लालसा रहती है। प्रेमास्पद का रस यदि अलग होने में है, तो वियोग की वेदना प्रेमी सह सकता है। प्रेमास्पद का रस मिलने में है तो मिल सकता है । लेकिन जिसमें प्रेमास्पद को रस मिलता हो, वहीं पवित्र प्रेम है ।

        तो इस दृष्टि से आप विचार करके देखें तो पवित्र प्रेम का अर्थ क्या हुआ ? कि प्रेमास्पद को रस देना । अब आप विचार करें, बहुत गम्भीरता से विचार करें कि भाई, जो सब प्रकार से समर्थ हो, पूर्ण हो उसको रस किसलिए दिया जाए ? क्योंकि जब किसी में किसी प्रकार की कमी हो तो उसे पूरा करने के लिए रस दिया जाता है ।

        तो भाई, कमी को पूरा करनेवाला जो रस होता है वह प्रेम-रस नहीं होता, वह भोग का रस होता है । तो भोग के रस में और प्रेम के रस में एक बड़ा अन्तर होता है । भोग के रस में कुछ लेने की लालसा होती है, किन्तु प्रेम के रस में कुछ लेने की लालसा नहीं होती, तो जब कुछ लेने की लालसा नहीं होती, तो फिर प्रेम का रस कैसे दिया जा सकता है ?

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 56-57) । 

Saturday 7 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 April 2012
(वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        यह नियम है, कि प्रेमी के जीवन में जब कोई समस्या आती है, तो प्रेमियों की ओर दौड़ता है । तो नारद बाबा ने सोचा, कि चलो भाई, ब्रज में चलें । तो ब्रज में नारद बाबा आए । नारद बाबा ब्रज में गए तो वहाँ देखते हैं कि वहाँ तो सब प्रेम-मूर्छा में बेहोस हैं । तो उन्होंने प्रिय का नाम लेना शुरू कर दिया - श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ, नारायण वासुदेव । तो प्रिय के नाम की भनक गोपियों के कानों में पड़ी, तो उनमें चेतना आ गई । तो जब चेतना आई, तो उन्होंने देखा कि सामने नारद बाबा खड़े हैं ।

        यह भी नियम ही है कि प्रेमी जब किसी प्रेमी को देखता है, तो बड़ी प्रसन्नता होती है । तो प्रसन्न होकर कहने लगीं - बाबा दण्डौत, बाबा दण्डौत । कहाँ से आ रहे हैं आप ? नारद बाबा कहने लगे कि आए कहाँ से हैं, आए तो हम द्वारकापुरी से हैं । तो जब प्रिय के धाम की बात सुनी, तो और चेतना हुई । तो गोपियाँ पूछने लगीं कि प्यारे अच्छे तो हैं । अच्छे तो हैं, पर..! जब गोपियों ने यह संदेहास्पद सुनी, तो गोपियाँ कहने लगीं, बाबा, पर-पर क्या कहते हो ? बाबा, बताओ हमारे प्यारे अच्छे तो हैं ? 

        नारद बाबा बोले कि अच्छे तो हैं पर उनके सिर में पीड़ा हो रही है, तो गोपियाँ व्याकुल हो गईं । कहने लगीं कि, क्या द्वारकापुरी में कोई उपचार करनेवाला नहीं है ? तो नारद बाबा बोले कि उपचार करनेवाला तो है, पर औषधि नाय मिलै । तो ऐसी कौन सी औषधि है जो नाय मिलै । आप बताओ तो सही। क्या बताएँ औषधि तो मिलै नाय । वे पूछने लगीं कि बाबा, बताओ तो सही, ऐसी कौन सी औषधि है ? वे सोच नहीं सकती थीं ।

        तब नारद बाबा बोले कि औषधि तो यह है कि कोई उनका प्रेमी अपने चरण की रज दे दे, तो उनके सिर की पीड़ा दूर होगी। तो वे बोलीं - बाबा, ले जाओ, ले जाओ । जितनी रज चाहिए शीघ्र ले जाओ । नारद बाबा कहने लगे कि गोपियों, क्या तुम यह नहीं जानती हो कि श्यामसुन्दर सच्चिदानन्दघन हैं । तुम उनके मस्तक पर अपनी चरण-रज लगाओगी, तो तुम्हें नरक भोगना पड़ेगा । तो वे बोलीं, बाबा, एक जन्म में नहीं हम अनन्त जन्मों तक नरक भोग सकती हैं, पर प्यारे के सिर की पीड़ा नहीं सह सकतीं । तो कहने का तात्पर्य क्या निकला ? यह है पवित्र प्रेम

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 55-56) । 

Friday 6 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 06 April 2012
(चैत्र पूर्णिमा, श्रीहनुमान जयन्ती, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        तो भगवान एक दिन कहने लगे कि क्या बताएँ रुक्मिणीजी, हमारे सिर में बड़े जोर की पीड़ा हो रही है । तो आप जानते हैं कि प्रिय की पीड़ा सुनकर सभी का हृदय अधीर हो जाता है । तो रुक्मिणीजी अधीर हो गईं और कहने लगीं कि हे प्यारे, आपके सिर में पीड़ा हो रही है, तो आप कोई उपचार बताइये, कि क्या करें ? क्योंकि प्रिय की जो पीड़ा है, अपनी पीड़ा से अधिक वेदना देनेवाली होती है ।

        श्यामसुन्दर कहने लगे - रुक्मिणीजी, उपचार तो है, पर यहाँ औषधि कहाँ ? रुक्मिणीजी ने कहा, महाराज, आपकी द्वारकापुरी में अष्ट सिद्धि नवनिधि निवास करती है । यहाँ औषधि नहीं मिलेगी । श्रीकृष्ण ने कहा - रुक्मिणीजी, यहाँ औषधि कहाँ ? महाराज आप बताएँ तो सही, ऐसी क्या औषधि है, जो यहाँ नहीं मिलेगी । श्यामसुन्दर ने कहा, रुक्मिणीजी, औषधि तो केवल इतनी-सी है कि कोई हमारा प्रेमी हो और अपने चरणकी रज यदि हमारे मस्तक पर लगा देता तो हमारी पीड़ा बन्द हो जाती ।

        रुक्मिणीजी सोचने लगीं कि प्रेमी तो हम भी हैं, लेकिन हम इनकी पत्नी हैं, ये हमारे पति हैं । भला हम अपने पतिदेव के मस्तक पर अपने चरण की रज लगाएँगी, तो हमें नरकमें जाना पड़ेगा । तो रुक्मिणीजी का साहस नहीं हुआ । नारद बाबा सोचने लगे कि प्रेमी तो हम भी हैं, लेकिन हमारा दास्य भाव है । यदि दास अपने स्वामी के मस्तक पर अपनी चरण-रज लगाएगा, तो नरक भोगना पड़ेगा । तो नारद बाबा का भी साहस नहीं हुआ। परन्तु प्रेमी तो थे ही । प्रिय की वेदनाका दुःख तो था ही । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 54-55) । 

Thursday 5 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 05 April 2012
(चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        आप सोचिए, एक बार नारद बाबा को मजाक सुझा। और उन्होंने रुक्मिणीजी से कहा कि, हे रुक्मिणीजी, तुम श्यामसुन्दर की इतनी सेवा करती हो, इतना प्रेम करती हो लेकिन ये तो जब देखो तब 'राधे-राधे' रटा करते हैं । ये ब्रज-वासियों को कभी नहीं भूलते हैं । रुक्मिणी ने कहा, बाबा, बात तो ठीक है कि श्यामसुन्दर कभी नहीं भूलते हैं ब्रज को । मैंने अनेक बार देखा है कि इनके मन में राधे, राधे की ध्वनि निकलती ही रहती है ।

        तो एक बिल्कुल प्राकृतिक बात है कि जब किसी पत्नी के मन में यह बात आ जाय कि मेरे पति किसी और से प्रेम करते हैं, तो उसके जीवन में उतना रस नहीं रहता । यद्यपि प्रेम के साम्राज्य में नीरसता की गन्ध नहीं है किन्तु हमको जब बात को सोचना पड़ता है, समझना पड़ता है तो अपनी भौतिक दृष्टि से समझना पड़ता है ।

        जब देखा श्यामसुन्दर ने कि नारद बाबा ने तो रुक्मिणी के मन में भेद पैदा कर दिया । प्रेम में सबकुछ सहन होता है, किन्तु भेद नहीं सहन होता, विस्मृति नहीं सहन  होती । प्रेम के साम्राज्य में भेद और विस्मृति का कोई स्थान नहीं है । सब कुछ प्रेमी सह सकता है, पर भेद और विस्मृति नहीं सह सकता । तो भगवान ने सोचा कि भाई, नारद ने तो मजाक किया ही है, किन्तु रुक्मिणीजी का भी समाधान करना है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 53-54) । 

Wednesday 4 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 04 April 2012
(चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

पवित्र प्रेम में प्रेमास्पद को रस देने की ही बात रहती है, अपने सुख लेने की बात नहीं होती। आप देखिए और विचार करके देखिए, कि जहाँ अपना रस है - चाहे प्रेमास्पद की सेवा का ही रस हो, चाहे प्रेमास्पद के दर्शन का ही रस हो - अपने रस में और प्रेमास्पद के रस में कितना अन्तर होता है । 

अपना जो रस होता है वह अपने अहं को पुष्ट करता है और अहं जब होता है, तो वह भेद को जन्म देता है । जातीय एकता होने पर भी, नित्य सम्बन्ध होने पर भी, आत्मीयता होने पर भी अगर किसी प्रकार का अहं रहता है - चाहे चिन्मय अहं क्यों न हो, नित्य अहं क्यों न हो - किसी प्रकार का भेद ही न रहता है ?

तो भाई इस दृष्टि से सोचने पर यह पता चलता है कि पवित्र प्रेम और प्रेम में बहुत बड़ा अन्तर नहीं है, किन्तु पवित्र प्रेम जो है, प्रेमी के अहं को गलाकर 'प्रेम' बना देता है । अर्थात् प्रेमी का अस्तित्व नहीं रहता, अपितु प्रेम का अस्तित्व रहता है । तो प्रेमी के अस्तित्व से रहित प्रेम का जो अस्तित्व है, अरे भाई, वही पवित्र प्रेम है । इस  सम्बन्ध में अनेक प्रेमियों के चरित्र हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 52-53) ।