Saturday 17 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 17 December 2011
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        एक बार एक अंग्रेज युवक हमारे मानव सेवा संघ आश्रम में आया । भिखारी वेश समझिए, साधु वेश समझिए। हम लोगों जैसे तो कपड़े नहीं थे। तो वह आश्रम में ठहरा रहा। हमारे यहाँ नियम है कि कोई ठहरना चाहे तो ठहर सकता है। हमने उससे कुछ नहीं कहा कि तुम हमारे सत्संग में बैठो या हमारी बात मानो । कोई उसपर पाबन्दी नहीं डाली । तो उससे हमने प्रश्न किया । हमने कहा कि तुमने कोई ऐसा देश देखा है कि जिसके पास कुछ भी न हो और वह आराम से रह ले, जैसा कि हिन्दुस्तान में रहता है । ईमानदार आदमी था । उसने कहा, हमने ऐसा कोई देश नहीं देखा । यह हमारे गरीब देश की महिमा है।

        अमेरिका में जाओ, इंग्लैण्ड में जाओ, चीन में जाओ। या तो सरकार की पेंशन खाओ या भूखे मर जाओ । एक आदमी अपरिचित चला जाय । एक आदमी ऐसा चला जाय जिसका सरकार से कोई सम्बन्ध न हो, तो वह भूखा मर जाएगा। तो अकेली सरकार अमीर हो गयी और सब गरीब हो गए । सरकार दिन-रात माँग रही है । टैक्स पर टैक्स बढ़ते जाते हैं, टैक्स पर टैक्स बढ़ते चले जा रहे हैं ।
               
        मैं तो आपसे यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यह गरीबी मिटाने का उपाय नहीं है । जो आप यूरोप (Urope) की नकल कर रहे हैं । टैक्स बढ़ाना तो आपने सीख लिया, सुविधा देना नहीं सीख पाया । अधिकार माँगना तो सीख लिया, क्या कर्तव्यपरायणता को भी अपनाया ? अधिकार माँगनेवाला सदा ही दरिद्र रहेगा । कभी उसकी दरिद्रता मिट नहीं सकती। कर्तव्यनिष्ठ की दरिद्रता मिटती है । कर्तव्यनिष्ठता का अर्थ है दूसरों के अधिकारों की रक्षा करो । यह कर्तव्यपरायणता का अर्थ है। अगर तुम दूसरों के काम आते रहोगे तो तुम्हारी दरिद्रता मिट जाएगी । अगर स्वयं काम-रहित (कामना-रहित) हो जाओगे, तो तुम्हारी गरीबी मिट जाएगी ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 15-16)

Friday 16 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 16 December 2011
(पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        कोई कहता है - धन बाँट दो गरीबी मिट जाएगी । कोई कहता है - धन छीन लो गरीबी मिट जाएगी । कोई कहता है - कर्ज दे दो गरीबी मिट जाएगी। क्या तमाशा बना रखा है ?

        एक आदमी की गरीबी सारा संसार मिल कर मिटाना चाहे तो नहीं मिटा सकता और यदि आप अपनी गरीबी मिटाना चाहे तो अभी-अभी हम और आप अपनी गरीबी को मिटा सकते हैं। कैसे ? बल का सदुपयोग करके, ज्ञान का आदर करके, निर्विकल्प विश्वास करके हम अपनी गरीबी मिटा सकते हैं । क्यों ? बल के सदुपयोग से कर्तव्यपरायणता आ जाएगी । कर्तव्यपरायणता से हम राग-रहित हो जाएँगे, ज्ञान के आदर से हम निर्मम, निष्काम और असंग होकर क्रोध-रहित हो जाएँगे, विषमता-रहित हो जाएँगे, पराधीनता-रहित हो जाएँगे और आत्मीयता से जाग्रत प्रियता से नीरसता-रहित हो जाएँगे और इस प्रकार गरीबी मिट जाएगी ।

        गरीबी मिटाने का उपाय वैज्ञानिक के पास नहीं है । गरीबी मिटाने का उपाय किसी कलाकार के पास नहीं है । गरीबी मिटाने का उपाय किसी साहित्यिक के पास नहीं है । गरीबी मिटाने का उपाय तो मानव-मात्र के पास है । वह क्या है ? सत्संग । सत्संग से गरीबी मिटेगी । क्यों ? अब इसको जरा वैज्ञानिक दृष्टि से सोचिए - वैज्ञानिक दृष्टि से ।

        वैज्ञानिक तथ्य क्या है ? आप अनुभव करके देखें । अगर हमारे जीवन में निर्लोभता आ जाती तो हम संग्रही होते क्या? बोलो, अनुदार होते क्या ? अगर हमारे जीवन में निर्लोभता आ जाती तो हम भिखारी होते क्या ? बोलो । भिखारी भी नहीं होते, अनुदार भी नहीं होते, संग्रही भी नहीं होते । जिसके जीवन में भिखारी-पन चला गया, अनुदारता चली गयी, संग्रह चला गया, वहाँ गरीबी टिकेगी ? क्या राय है ? कभी भी नहीं रह सकती है। यह इतना जबरदस्त भ्रम है हम लोगों को ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 14-15)

Thursday 15 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 15 December 2011
(पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        धूम मचाए हैं, गरीबी मिटेगी, गरीबी मिटेगी । कैसे मिटेगी ? कि सेठ को हटा दो सैक्रेट्री को रख दो । रानी के पेट से निकला हुआ राजा नापसन्द है तो जनता के पेट से निकला हुआ मिनिस्टर गरीबी मिटाएगा ? बिल्कुल भ्रमात्मक धारणा है । उन्होंने कहा साहब, गरीबी तब मिटेगी, जब सारे संसार में बहुत से कल-कारखाने हो जाएँगे । अरे, जिन देशों में बहुत से कल-कारखाने हो गए हैं, उनकी गरीबी नहीं मिटी। गरीबी मिटती तो क्या वे यह कहते ।

        किसी पैसेवाले से जाकर मिलना और पूछना कि ईमानदारी से कहना - तुम्हारी तो गरीबी मिट गयी होगी । भगवान की कृपा है - टालमटोल करेगा । तो बता भाई तेरी गरीबी तो मिट गई होगी, फिर कर्जा क्यों देतो हो किसी को ? जब तुम्हारे मन में भी धन बढ़ाने की इच्छा है और मैं एक मजदूर हूँ मेरे मन में धन बढ़ाने की इच्छा है तो बताओ वस्तुस्थिति में क्या फर्क रह गया? क्या कर्ज बाँटनेवाला गरीब नहीं है ?

        कर्ज लेनेवाला ही गरीब है क्या ? सोचो जरा ईमानदारी से। क्यों भैया ईमानदारी से बताओ - तुमको किसी से भय तो नहीं है? अभय हो गए, चिन्ता नाश हो गयी ? स्वाधीन हो गए, अमर हो गए ? अमर हो नहीं गया, निर्भय हो नहीं गया, स्वाधीन हो नहीं गया, चिन्ता मिटी नहीं और गरीबी मिट गयी ! कितना हम अपने आपको धोखा देते हैं, कितना हम अकारण दुखी होते हैं, परेशान होते हैं । अजी, गरीबी तो जीवन में इसलिए है क्योंकि आपको पराधीनता प्रिय है । गरीबी तो इसलिए है जीवन में क्योंकि आपको अनुदारता प्रिय है । गरीबी तो इसलिए है क्योंकि तुम्हें प्रेम अप्रिय है ।

        जहाँ प्रेम की गंगा लहराती हो, जहाँ स्वाधीनता का जीवन हो, जहाँ उदारता का जीवन हो वहाँ कहाँ गरीबी ? लेकिन बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आज हम मानव होकर मानव-जीवन का कितना अनादर कर रहे हैं, कितनी असावधानी बरत रहे हैं, कितना अपने को धोखा दे रहे हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 13-14)

Wednesday 14 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 14 December 2011
(पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        कल्पना करो, आज का सुधारवादी नेता धूम मचाए हुए है कि गरीबी मिटाओ, गरीबी मिटाओ । मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ । एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूँ। आप मुझको यह बताइये कि गरीबी कहाँ नहीं है। कोई ऐसा देश बताइये, कोई ऐसा वर्ग बताइये जहाँ गरीबी न हो। जहाँ बहुत बड़ी अमीरी दिखाई देती है वहाँ गरीबी का दर्शन होता है या नहीं । अगर कोई ईमानदार मानव इस बात को सिद्ध कर दे कि हमने अमुक परिस्थिति में ऐसा पाया कि जहाँ गरीबी नहीं थी ।

        गरीबी का अर्थ जरा सोचिए तो सही । जबतक हमको उससे (परमात्मा से) भिन्न, जो अपने में है कुछ भी चाहिए, तबतक गरीबी मिट सकती है क्या ? बोलो भई बोलो । जबतक हमें वह चाहिए जो अपने में नहीं है, जो अभी नहीं है उससे भिन्न यदि चाहिए तो गरीबी मिट सकती है क्या ? हाँ, गरीबी का रूप बदल जाएगा । रूप क्या बदल जाएगा ? जैसे 3/4 लिखते हैं न, उसे कोई 75/100 लिख दे । तो देखने में तो बहुत बड़ी संख्या हो गयी, पर अर्थ में क्या अन्तर पड़ा ?

        हमसे बताइये, एक व्यक्ति को बताइये, जो ईमानदारी से यह कह सके कि परिस्थिति के आश्रित होकर, संसार के आश्रित होकर मेरे सभी संकल्प पुरे हो गए । ऐसा कोई नहीं मिलेगा । सारे विश्व में नहीं मिलेगा । इतना ही नहीं, दूसरी यह बात भी कि कोई ऐसा आदमी भी नहीं मिलेगा जो कहे कि मेरा कोई संकल्प पूरा नहीं हुआ । भई, जब सभी संकल्प किसी के पुरे नहीं होते और कुछ संकल्प सभी के पुरे होते हैं । यदि यह जीवन का सत्य है तो निःसंकल्प हुए बिना गरीबी कैसे मिटेगी ?

        गम्भीरता से विचार किया जाय, बड़े धीरज से इस बात पर विचार किया जाय कि जबतक हम निर्विकल्प नहीं होते तबतक गरीबी कैसे मिटेगी ? जबतक निःसंकल्प नहीं होंगें तबतक निर्विकल्प होंगे कैसे ? निर्मम होने से निःसंकल्प होंगे, निःसंकल्प होने से निर्विकल्प होंगे । निर्विकल्प होने से गरीबी क्यों मिटेगी ? इसलिए मिटेगी कि जीवन अभी है, अपने में है। इसलिए गरीबी मिटेगी ।

        अगर जीवन अपने में न होता, तो निर्विकल्प होने से गरीबी कभी नहीं मिटती । किन्तु महानुभाव, हम इस वास्तविकता पर विचार नहीं करते, जीवन का अध्ययन नहीं करते, जीवन के सत्य को स्वीकार नहीं करते ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 12-13)

Tuesday 13 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 13 December 2011
(पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)   
प्रवचन - 1

        गम्भीरता से विचार करें। महानुभाव, ईश्वरवाद का अर्थ अभ्यासवाद नहीं है, ईश्वरवाद का अर्थ विश्वासवाद है। ईश्वरवाद का अर्थ विचारवाद नहीं है, ईश्वरवाद का अर्थ आत्मीयतावाद है । ईश्वर में विश्वास करो और उसे अपना मानो और अभी मानो ।  इसका नाम ईश्वरवाद है ।

        ईश्वरवाद का अर्थ यह भी नहीं है कि हम ईश्वरवादी होकर, ईश्वर को अपना मानकर ईश्वर के सामने सदा हाथ पसारे रहें। हमें यह दे दो, हमें यह दे दो, हमें यह दे दो । जो हमें चाहिए वह बिना माँगे ही हमें मिलता है और जो बिना माँगे नहीं मिलता है, वह माँगने से भी नहीं मिलता । तो फिर माँगने का अर्थ क्या हुआ? इसलिए यह विधान ही है कि जो हमें चाहिए, वह बिना माँगे मिल जाएगा । और माँगने से भी कुछ नहीं मिलता तो माँगने का कोई अर्थ ही नहीं है ।

        यह मानव-जीवन है परमात्मा को अपने में, अभी प्राप्त करने के लिए । यह मानव-जीवन है मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य के द्वारा संसार के काम आने के लिए । यह मानव-जीवन है ज्ञानपूर्वक निर्मम, निष्काम, असंग होकर अपने में संतुष्ट होने के लिए । यह आपका-हमारा मानव-जीवन है ।

        मानव-समाज में जो आज हलचल मची है, वह क्यों है ? वह केवल इसलिए है कि हम अपने में सन्तुष्ट नहीं हैं । वह किसलिए है कि हम संसार के काम आते नहीं हैं, वह केवल इसलिए है कि हम वर्तमान में अपने में अपने परमात्मा से मिलते नहीं हैं ।
    
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 11-12)

Monday 12 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 12 December 2011
(पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        बुराई-रहित होने में सब स्वतन्त्र हैं ही । बुराई करना या न करना आपके वश की बात है । अगर आप बुराई करना पसन्द न करें तो बुराई आपके पास अपने आप थोड़े ही आ जाएगी । तो संसार की सेवा करने में मानव सर्वथा स्वाधीन और समर्थ है । यथाशक्ति भलाई करने में भी समर्थ है और की हुई भलाई का फल न चाहने में भी समर्थ है । की हुई बुराई को न दोहराने में भी समर्थ है और जानी हुई बुराई को न करने में भी समर्थ है ।

        यह तो संसार की सेवा हुई । फिर हमारी सेवा कैसी होगी? हमारी सेवा होगी अचाह होने से । "मुझे कुछ नहीं चाहिए", इसके द्वारा हम अपनी सेवा कर सकेंगे । कैसे ? अचाह होने से जब हम अप्रयत्न हो जाएँगे तब । अप्रयत्न होने पर हमारा स्थूल शरीर स्थूल संसार से, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म संसार से, कारण शरीर कारण संसार से सम्बन्ध टूट जाएगा ।

        जब हमारा और संसार का सम्बन्ध टूट जाएगा, तब हममें अपने में संतुष्ट होने की सामर्थ्य आ जाएगी । और जब हममें अपने में संतुष्ट रहने की सामर्थ्य आ जाएगी तब अपने में जो अपना परमात्मा है, उसका अनुभव हो जाएगा । ऐसा प्रभु-विश्वासी ही कह सकता है, क्योंकि परमात्मा को सभी ईश्वर-विश्वासियों ने अपना स्वीकार किया है, सदैव स्वीकार किया है, सर्वत्र स्वीकार किया है ।

        किसी भी परमात्मा को माननेवाले ने यह नहीं कहा कि परमात्मा समर्थ नहीं है, सदैव नहीं है, सर्वत्र नहीं है, अद्वितीय नहीं है । तो सदैव होने से अभी है, सर्वत्र होने से अपने में है, सभी का होने से अपना है, समर्थ है और अद्वितीय है । अब ये तीन बातें आपके सामने आईं कि परमात्मा अभी है, अपना है, अपने में है । तीन बातें ये हुईं ।

        जो चीज अभी है, उसके लिए भविष्य की आशा करेंगे क्या? और जो चीज अपने में है, उसे कहीं बाहर ढूँढोगे क्या ? और जो चीज अपनी है, उससे प्रियता उदित नहीं होगी क्या ? जो समर्थ है, वह हमें अपनाएगा नहीं क्या ? जो चीज अपनी है, उसे भूल जाएँगे क्या ? जो अद्वितीय है, उसकी पहचान करनी पड़ेगी क्या? अद्वितीय वस्तु की पहचान थोड़े ही करनी पड़ती है ।

        इससे सारांश क्या निकला ? इससे तात्पर्य यह निकला कि जब हमें परमात्मा की पहचान नहीं करना है, तो बुद्धि की आवश्यकता क्या ? और अपना है तो प्रिय क्यों नहीं लगेगा? और जब अपने में है, तो अपने से दूर हो ही कैसे सकता है ?

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 10-11)

Sunday 11 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 11 December 2011
(पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, रविवार)

प्रवचन - 1

    मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव तथा भाई और बहन !

       माँग (स्वाधीन होना या दुःखों की आत्यन्तिक निवृति होना) की पूर्ति संसार की सहायता से नहीं हो सकती । इसलिए हमें माँग की पूर्ति के लिए किसी परिस्थिति, किसी अवस्था, किसी वस्तु-व्यक्ति का किसी देश-काल का, आवाहन नहीं करना है ।

        अगर यह बात आपको पसन्द आ जाय कि माँग की पूर्ति के लिए संसार की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, तो माँग की पूर्ति के लिए संसार की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है । क्यों ? क्योंकि संसार हमें जो सहायता देता है, उससे हमारी माँग की पूर्ति नहीं हो सकती ।

        फिर हमारा और संसार का सम्बन्ध क्या है ? केवल यह सम्बन्ध है, कि संसार की धरोहर के रूप में जो हमारे पास शरीर है, वस्तु है - यह संसार की धरोहर है  - यह हमें आपको संसार से मिली है। संसार की जो धरोहर हमारे पास है, उसे हम विधिवत्, हर्षपूर्वक, पवित्र भाव से संसार की सेवा में लगा दें । अर्थात् हमारा और संसार का सम्बन्ध सेवा का सम्बन्ध है । हमारा और संसार का और कोई सम्बन्ध नहीं है ।

        सेवा का अर्थ क्या है ? सेवा का अर्थ है मन, वाणी, कर्म से बुराई-रहित होना । सेवा का अर्थ क्या है ? यथाशक्ति परिस्थिति के अनुसार भलाई करना । लेकिन वह कब ? जब की हुई भलाई का फल और मान न माँगें तब । बुराई-रहित होकर भलाई का फल न माँगें न चाहें - यह संसार की सबसे बड़ी सेवा है ।   

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 09-10)

Saturday 10 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 10 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

89.    प्रवृति के द्वारा जिस किसी को कुछ मिलता है, वह कालान्तर में स्वतः मिट जाता है ।

90.    प्रार्थना इसलिए नहीं की जाती कि आप कहेंगे, तब परमात्मा सुनेंगे। प्रार्थना का असली रूप है - अपनी आवश्यकता ठीक-ठीक अनुभव करना।

91.    जिस प्रकार प्यास लगना ही पानी का माँगना है, उसी प्रकार अभाव की वेदना ही प्रार्थना है ।

92.    जो तुम्हारे सम्बन्ध में तुमसे भी अधिक जानते हैं, क्या उनसे भी कुछ कहना है ?

93.    जिस प्रकार माँ को शिशु की सभी आवश्कताओं का ज्ञान है एवं शिशु के बिना कहे ही माँ वह करती है, जो उसे करना चाहिए, उसी प्रकार आनन्दघन भगवान् हमारे बिना कहे ही वह अवश्य करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए । परन्तु हम उनकी दी हुई शक्ति का सदुपयोग नहीं करते और निर्बलता मिटाने के लिए बनावटी प्रार्थना करते रहते हैं ।

94.    प्रभु की महिमा सुनकर जो ईश्वरवादी होते हैं, वे कामी हैं, प्रेमी नहीं ।

95.    योग की प्राप्ति में, बोध की प्राप्ति में, प्रेम की प्राप्ति में कुछ न चाहना ही मूल मन्त्र है ।

96.    अपने प्रियतम को अपने से भिन्न किसी और में अनुभव मत करो ।

97.    जिनके सम्बन्धमात्र में ही देहाभिमान गल जाता है, उनके प्रेम की प्राप्ति में भला देहादि की क्या अपेक्षा होगी ?

- 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Friday 9 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 09 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

82.    आप सच मानिए, सिद्धि वर्तमान में ही होती है। भविष्य में कभी सिद्धि नहीं होती । भविष्य में तो उसकी प्राप्ति होती है, जो वर्तमान में नहीं है अर्थात् जिसकी उत्पत्ति हो । ........... जरा सोचिए, साध्य तो हो वर्तमान में, और साधक यह माने कि हमें भविष्य में मिलेगा ! जरा ध्यान दीजिए, साध्य तो है वर्तमान में, और मिलेगा भविष्य में !

83.    मानव को प्रभु दण्ड नहीं देता, विधान मानव को दण्ड नहीं देता, तो फिर क्या देता है ? जिस परिस्थिति से आपका विकास होता है, वही परिस्थिति आपको देता है ।

84.    यह दिमागी कौतूहल है कि किसी परिस्थिति-विशेष की प्राप्ति से हम वह हो जाएँगे, जो हम आज नहीं हैं । सरकार, यहीं रहेंगे, यहीं । अन्तर यही होगा कि आप तीन बटा चार न लिखकर पचहत्तर बटा सौ लिखियेगा ।

85.    प्राकृतिक नियमानुसार प्रत्येक परिस्थिति मंगलमय है, इसी ध्रुव सत्य के कारण जो हो रहा है, वही ठीक है ।

86.    प्रतिकूल परिस्थिति भोग में भले ही बाधक हो, पर योग में नहीं ।

87.    ऐसी कोई अनुकूलता है ही नहीं, जिसने प्रतिकूलता को जन्म न दिया हो और न ऐसी कोई प्रतिकूलता ही है, जिसमें प्राणी का हित न हो ।

88.    जितने आस्तिक होते हैं, वे प्रत्येक प्रतिकूलता में अपने परम प्रेमास्पद की अनुकूलता का अनुभव करते हैं कि अब हमारे प्यारे ने अपने मन की बात करना आरम्भ कर दिया । अब वे हमें जरूर अपनायेंगे ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Tuesday 6 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 06 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी, गीता जयंती, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

63.    वे (संसार के रचयिता) अपनी वस्तु को सदैव देखते रहते हैं। उन्होंने कभी भी तुम्हें अपनी आँख से ओझल नहीं किया । ........... साधक भले ही उन्हें भूल जाय, पर वे नहीं भूलते। ........... जिसकी जो वस्तुएँ हैं, उसे वह देखता ही है, सम्भालता ही है । ............ अपनी रचना से क्या रचयिता अपरिचित होता है? कदापि नहीं ।  
      
64.    भगवान् का कोई एक ठिकाना नहीं है । ऐसा नहीं है कि संसार अलग हो, तत्वज्ञान अलग हो, भक्ति अलग हो और भगवान् अलग हो । सब मिलकर जो चीज है, उसी का नाम भगवान् है ।
             
65.    जो किसी का नहीं तथा जिसका कोई नहीं, उसके भगवान् अपने-आप हो जाते हैं; क्योंकि वे अनाथ के नाथ हैं ।

66.    भगवान् के होकर 'भगवान् का स्वरूप क्या है ?' यह प्रश्न क्या अर्थ रखता है ? गहराई से देखिए, प्यासने कभी नहीं पूछा, 'पानी क्या है ?' भूख ने किसी से नहीं पूछा, 'भोजन क्या है?' पानी पाकर प्यास तृप्त हो गई, भोजन पाकर भूख तृप्त हो गई। तृप्ति होनेपर पानी और प्यास की भिन्नता तथा भूख और भोजन की भिन्नता शेष नहीं रहती ।

67.    जब हम अपने में शरीर-भाव का अभिनय स्वीकार करते हैं, तब हमारे प्यारे (प्रभु) विश्वरूप होकर लीला करते हैं । शरीर होकर किसी भी खिलाड़ी (प्राणी) ने विश्व से भिन्न कुछ नहीं जाना । .......... हम शरीर बनकर तो केवल उनको विश्वरूप में ही देख सकते हैं ।
 
68.    ईश्वर मानव की स्वाधीनता छिनना नहीं चाहता, इसलिए मानव जबतक स्वयं अपनी ओर से ईश्वर के सम्मुख नहीं होता, तबतक ईश्वर उसके पीछे ही रहता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Monday 5 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 05 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार 

56.    जिस समय अपने दोष का दर्शन हो जाय, समझ लो कि तुम जैसा विचारशील कोई नहीं । और जिस समय परदोष-दर्शन हो जाय, उस समय समझ लो कि हमारे जैसा कोई बेसमझ नहीं ।

57.    अपने दोष का दर्शन अपने को निर्दोष बनाने में समर्थ है और परदोष-दर्शन अपने को दोषी बनाने में हेतु है ।

58.    भगवान् के खिलाफ जो आवाज उठती है न, वह तर्क से नहीं उठती है । वह आवाज उठती है भगवान् को माननेवालों के दुश्चरित्र से, और कोई बात नहीं है । भगवान् को माननेवाले अगर ठीक आदमी हों तो भगवान् के खिलाफ कोई बोल ही नहीं सकता ।

59.    परमात्मा को 'अभी' न मानना बड़ी भारी भूल होगी, 'अपना' न मानना उससे बड़ी भूल होगी, और 'अपने में' न मानना सबसे बड़ी भूल होगी ।

60.    प्रभु अपने में हैं, अभी हैं और अपने हैं - इससे परमात्मा मिल जाएँगे ।

61.    याद रहे, और कुछ भी अपना है और परमात्मा भी अपना है - ये दोनों बातें एक साथ नहीं होतीं । जबतक हम और कुछ भी अपना मानते हैं, तबतक तो मुख से कहते हुए भी हमने सच्चे हृदय से भगवान को अपना नहीं माना । यही इसकी पहचान है।

62.    सर्वसमर्थ प्रभु साधक का भूतकाल नहीं देखते । उसकी वर्तमान वेदना से ही करुणित हो अपना लेते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Sunday 4 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 04 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
     
सन्त हृदयोद्गार 

50.    प्रिय-से-प्रिय वस्तु तथा व्यक्ति का त्याग गहरी नींदके किए भला किसने नहीं किया ?

51.    ईश्वर, धर्म और समाज किसी के ॠणी नहीं रहते । जो इनके लिए त्याग करते हैं, उनका ये अवश्य निर्वाह करते हैं ।

52.    त्याग हो जाने पर त्याग का भास नहीं रहता; क्योंकि त्याग की स्मृति अथवा उसका अस्तित्व तभी तक प्रतीत होता है, जबतक त्याग होता नहीं ।

53.    इन तीन बातों से सारे जीवन की समस्याएँ हल हो जाती हैं - १) मुझे कुछ नहीं चाहिए, २) प्रभु अपने हैं, ३) सब कुछ प्रभु का है । यही जीवन का सत्य है। इसको स्वीकार करने से उदारता, स्वाधीनता और प्रेम प्राप्त होगा ।

54.    ध्यान किसी का नहीं करना है । किसी का ध्यान नहीं करोगे तो परमात्मा का ध्यान हो जाएगा । और किसी का ध्यान करोगे तो वह फिर किसी और का ही ध्यानमात्र रह जाएगा ।

55.    अगर परमात्मा के माननेवालों को परमात्मा की याद नहीं आती, और करनी पड़ती है - यह कोई कम दुःख की बात है ? यह कम आश्चर्य की बात है ? अरे, मरे हुए बुजुर्गों की याद आती है आपको, गये हुए धन की याद आती है आपको ! तो परमात्मा इतना घटिया हो गया कि उसकी याद आपको करनी पड़े? .......... याद नहीं आती है इसलिए कि आप उसे अपना नहीं मानते ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Saturday 3 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 03 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        दोष-जनित सुख दोषों को बनाये रखने पर भी सुरक्षित नहीं रहता, अर्थात् कोई भी प्राणी सदैव दोषी होकर भी सुख का भोग नहीं कर सकता है । आया हुआ सुख चला जाता है और उसका भोगी बेचारा दोषी बनकर ही रह जाता है। यद्यपि अपने को सदा के लिए सर्वांश में दोषी बनाये रखना किसी को भी अभीष्ट नहीं है, तथापि सुख की दासता से वह अपने में अपराधी-भाव स्वीकार कर, निर्दोषता से निराश हो जाता है । इस कारण सुख-भोग का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

        सुख का आना और जाना तभी उपयोगी तथा हितकर सिद्ध होते हैं, जब मानव सुख का भोगी न होकर, उसकी वास्तविकता का अनुभव कर, आये हुए सुख द्वारा सेवा-परायण हो जाय। सेवा-सामग्री का भोगी हो जाना, मानवता से पशुता की ओर अग्रसर होना है ।

        दुःख का प्रभाव पशुता का अन्त कर सोई हुई मानवता जगाने में समर्थ है । यह तभी सम्भव होगा, जब मानव यह स्वीकार करे कि आया हुआ सुख अपने लिए नहीं है, अपितु दुखियों की धरोहर है । सुख-दुःख-युक्त परिस्थिति में से जब सुखांश सेवा में व्यय हो जाता है, तब मंगलमय विधान से केवल दुःख दुखी को उस जीवन से अभिन्न कर देता है, जो सुख-दुःख से अतीत दिव्य और चिन्मय है, जिसमें जड़ता, पराधीनता तथा अभाव की गन्ध भी नहीं है और जो अकर्तव्य, असाधन एवं आसक्तियों से रहित है ।

        कामना-पूर्ति और अपूर्ति की परिस्थितियों से तादात्म्य स्वीकार करना अपने को सुख की दासता तथा दुःख के भय में आबद्ध करना है । इस कारण कामना-पूर्ति-अपूर्ति में जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद ही है । प्रमाद के रहते हुए न तो सुख की दासता का नाश होता है और न दुःख के भय का ही अन्त होता है। दुःख का भय दुःख से भी अधिक दुःखद है । दुःख का भय दुखी के जीवन में असावधानी उत्पन्न कर देता है, जो उसके लिए सर्वदा अहितकर है । इस दृष्टि से दुःख से भयभीत होना भारी भूल है । इस भूल का अन्त करना मानव मात्र के लिए अनिवार्य है।

- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 25-26)

Friday 2 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 02 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      परिस्थिति-भेद से बेचारा प्राणी केवल अनुमान करता है कि अमुक व्यक्ति विशेष सुखी है । विशेषता और न्यूनता परिस्थितियों के बाह्य स्वरूप में है । सुख का भास वास्तव में परिस्थिति-जन्य नहीं है, केवल संकल्प-पूर्तिजन्य है । सभी संकल्पों की पूर्ति किसी भी प्रकार, किसी भी परिस्थिति में सम्भव नहीं है । तो फिर सुख के अस्तित्व को स्वीकार करना कहाँ तक युक्तियुक्त है? अस्तित्वहीन आभास मात्र सुख के पीछे दौड़ना रस से विमुख होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

        न चाहने पर भी बार-बार दुःख का प्रादुर्भाव मंगलमय विधान से सुख की दासता का नाश करने के लिए ही मानव के जीवन में होता है । पर बेचारा प्राणी प्रमादवश आए हुए दुःख से भयभीत और जानेवाले सुख की दासता में आबद्ध होकर नित-नव रस से, जो जीवन की वास्तविक माँग है, वंचित रह जाता है; यद्यपि रस की माँग नष्ट नहीं होती, दब जाती है और फिर नीरसता मानव को सुख का भिखारी बना देती है । नीरसता का अन्त वर्तमान में सम्भव है; किन्तु सुख का सम्पादन भविष्य की आशा पर ही निर्भर रहता है । भविष्य की आशा वर्तमान की वास्तविक व्यथा को शिथिल बनाती है । 

        व्यथा की शिथिलता में सजगता नहीं रहती । उसके बिना सुख और रस का भेद स्पष्ट नहीं होता । उसके बिना हुए न तो रस की माँग ही सर्वांश में जाग्रत होती है और न सुख की आशा का ही अन्त होता है । सुख के सम्पादन के लिए श्रम, संग्रह, पराधीनता एवं जड़ता आदि दोष अपेक्षित हैं; किन्तु अगाध, अनन्त, नित-नव रस के प्रादुर्भाव के लिए केवल विश्राम, स्वाधीनता तथा प्रेम की जागृति अपेक्षित है ।

        दुःख का प्रभाव अत्यन्त सुगमतापूर्वक मानव को विश्राम, स्वाधीनता तथा प्रेम का अधिकारी बना देता है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होंने आये हुए दुःख का आदरपूर्वक स्वागत किया है और गये हुए सुख को धीरजपूर्वक विदाई दी है।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 24-25)

Thursday 1 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 01 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

     प्राकृतिक नियमानुसार कोई भी प्रतीति तथा भास स्वरूप से स्थिर नहीं है। उसकी उत्पत्ति तथा विनाश का जो क्रम है, उससे ही स्थिरता का भास होता है। किन्तु सुख के आदि और अन्त में दुःख स्वभाव से उस समय तक रहता ही है, जबतक सुख में अथवा उसके भोग में आस्था है। आस्था प्राणी को उसके अस्तित्व का भास कराती है, जिसमें वह आस्था करता है ।

        जबतक सुख में आस्था रहेगी, तबतक सुख का अस्तित्व प्रतीत होगा । यद्यपि प्राकृतिक नियमानुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक प्रतीति निरन्तर परिवर्तनशील है, तथापि सुखासक्ति सतत परिवर्तन में भी स्थिरता का भास कराती है । सुख की स्थिरता का भास सुख में जीवन-बुद्धि उत्पन्न करता है, जिसके उत्पन्न होते ही सुख का महत्व बढ़ जाता है और फिर बेचारा प्राणी विवश होकर अपने आप जानेवाले सुख के पीछे दौड़ने लगता है, यद्यपि उसे पकड़ नहीं पाता । परन्तु अल्पकाल की समीपता की अनुभूति, न रहनेवाले सुख से निराश नहीं होने देती।

        सुख की आशा सुख से भी अधिक मधुर प्रतीत होती है। उस मधुरिमा में आबद्ध प्राणी सुख-भोग के लिए बड़े-बड़े दुखों को सहन कर सकता है । उसपर पर भी सुख का भोग तथा उसकी आशा परिणाम में दुःख ही प्रदान करती है । इस दृष्टि से सुख में ही दुःख विद्यमान है और दुःख से ही सुख का भास होता है। सुख और दुःख, दोनों की वास्तविकता के बोध में सुख की दासता तथा दुःख के भय का नाश है ।

        रस जीवन की माँग है और सुख तथा दुःख भोग हैं । भोग का परिणाम रोग तथा शोक है, जो किसी भी प्राणी को अभीष्ट नहीं है । सुख संकल्प-पूर्ति की एक दशा मात्र है और कुछ नहीं। संकल्प शुद्ध हो अथवा अशुद्ध, लघु अथवा महान; किन्तु संकल्प-पूर्ति का सुख समान ही है । इसी कारण शुभाशुभ प्रवृत्तियाँ सुख के भोगी में जीवित रहती हैं ।

        यदि संकल्प-पूर्ति के अतिरिक्त सुख का कोई और अस्तित्व होता, तो शुभाशुभ प्रवृत्तियों का विभाजन स्वतः हो जाता । इतना ही नहीं, उत्पन्न हुई अशुभ प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जातीं और पुनः उत्पन्न न होतीं । जीवन में केवल शुभ प्रवृत्तियाँ रह जातीं । परन्तु बेचारा सुख का भोगी सर्वांश में न अशुभ प्रवृत्तियों का नाश ही कर पाता है और न शुभ प्रवृत्तियों की दासता से ही मुक्त हो पाता है । प्रवृत्ति रहते हुए रस के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीं होता । इस दृष्टि से सुख और रस में बड़ा भेद है। इतना ही नहीं, रस की अनेक श्रेणियाँ हैं । परन्तु सुख में कोई श्रेणी नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 23-24)

Wednesday 30 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

    प्राकृतिक नियमानुसार सर्वांश में कोई भी परिस्थिति सुखमय तथा दुःखमय नहीं होती, अर्थात् उत्पन्न हुई प्रत्येक परिस्थिति आंशिक सुख तथा दुःख से युक्त है। आंशिक दुःख जब आंशिक सुख के प्रलोभन को सुख-काल में ही नष्ट कर देता है, तब उसे दुःख का प्रभाव समझना चाहिए । दुःख के रहते हुए और यह जानते हुए कि आया हुआ आंशिक सुख किसी भी प्रकार नहीं रहेगा, सुख-भोग की रूचि तथा उसकी आशा रखना दुःख का भोग है । सुख-काल में भी सुख-भोग का त्याग पुरुषार्थ से साध्य है। किन्तु दुःख के प्रभाव के बिना सर्वांश में दुःख का नाश किसी भी प्रकार साध्य नहीं है ।

        दुःख में सुख की आशा दुःख का भोग है । सुख में दुःख का दर्शन दुःख का प्रभाव है । भूख से पीड़ित प्राणी भोजन की आशा में सुख का अनुभव करने लगता है । यद्यपि सुख स्वरूप से नहीं होता, तथापि सुख-भोग की स्मृति उसे दुःख-काल में भी सुख का भास कराती है । उसी प्रकार सुख का भोग करते हुए सुख के न रहने की अनुभूति, सुख में ही दुःख का दर्शन कराती है, जिस प्रकार संयोग-काल में ही वियोग का भय होने लगता है ।

        दुःख का प्रभाव सजगता और दुःख का भोग जड़ता प्रदान करता है । सजगता असावधानी को नष्ट करती है; क्योंकि वह चिन्मय जीवन की ओर अग्रसर करती है । जड़ता चिन्मय जीवन से विमुख कर, मानव को सुख के प्रलोभन, दासता और आशा में आबद्ध करती है । जड़ता से चेतना की ओर अग्रसर होने के लिए दुःख के भोग का अन्त कर उसके प्रभाव को अपनाना अनिवार्य है।

        अपने आप जानेवाला जो सुख है, उसके न रहने का अनुभव यदि सुख-काल में ही कर लिया जाय, तो बहुत ही सुगमतापूर्वक सुख के भोग का नाश और दुःख के प्रभाव की अभिव्यक्ति हो सकती है । सुख-काल में सुख के जाने की विस्मृति ने ही दुःख का आह्वान किया है । इस कारण सुख का भोग करते हुए कोई भी प्राणी किसी भी प्रकार से दुःख से बच ही नहीं सकता, यह निर्विवाद सत्य है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 22)

Tuesday 29 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      दुःख का प्रभाव सुख-लोलुपता का अन्त कर मानव को सुख की आशा से मुक्त कर देता है । सुख की आशा से रहित होते ही सुख-दुःख से अतीत के जीवन की तीव्र जिज्ञासा तथा उत्कट लालसा जाग्रत होती है, जो विकास का मूल है ।

        सुख के न रहने अथवा उसके चले जाने की सम्भावना से दुःख की प्रतीति होती है । दुःख की प्रतीति होने पर यदि असावधानी से सुख की आशा उत्पन्न हो गई, तो दुःख का भोग होगा, प्रभाव नहीं । यदि आए हुए दुःख ने सुख की आशा को उत्पन्न नहीं होने दिया, अपितु प्राप्त सुख में भी दुःख का दर्शन करा दिया, तो यह दुःख का प्रभाव है । सुख में दुःख का दर्शन होते ही सुख के भोग की रूचि का नाश होता है, जिसके होते ही सुख-लोलुपता तथा सुख की आशा शेष नहीं रहती और फिर स्वतः दुःख का प्रभाव, दुःख का अन्त कर वास्तविक जीवन से साधक को अभिन्न कर देता है ।

        दुःख का भोग दुखी को न तो सुखी कर पाता है और न दुःख का ही अन्त होता है, अपितु बेचारा दुःख का भोगी सुख की आशा में ही आबद्ध रहता है । इस दृष्टि से दुःख का भोग दुखी का अहित ही करता है । दुःख के प्रभाव तथा उसके भोग का अन्तर स्पष्ट हो जाने पर प्रत्येक दुखी दुःख के प्रभाव को अपनाकर कृतकृत्य हो सकता है ।

        दुःख का भोग जड़ता और दुःख का प्रभाव चेतनता प्रदान करता है । सुख के भोगी को दुःख विवश होकर भोगना ही पड़ता है। सुख-भोग की रूचि बनाये रखने पर दुःख का भोग होता ही रहता है । इस कारण सुख-भोग की रूचि का नाश अनिवार्य है, जो दुःख के प्रभाव से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 21)

Monday 28 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        सुख की दासता रखते हुए दुःख का भय किसी भी प्रकार मिट नहीं सकता। इस कारण सुख की दासता का अन्त करना अनिवार्य है। सुख की दासता आए हुए सुख को सुरक्षित नहीं रख पाती, फिर भी सुख का भोगी उसका त्याग नहीं कर सकता । यह कैसी विडम्बना है ! सुख की दासता ही दुःख का भोग कराती है, दुःख का प्रभाव नहीं होने देती । दुःख का प्रभाव सुख-काल में भी सुख की दासता से मुक्त कर देता है । इस दृष्टि से आए हुए दुःख का प्रभाव विकास का मूल है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होनें सुख-दुःख की वास्तविकता को भलीभाँति निज-विवेक के प्रकाश में अनुभव किया है ।

        वस्तुतः दुःख का भय ही दुखी को दुःख के भोग में प्रवृत करता है, उसका प्रभाव नहीं होने देता । जिस अनुकूलता के जाने का दुःख है, क्या वह अनुकूलता किसी भी प्रयास से सुरक्षित रह सकती है ? कदापि नहीं । प्रतिकूलता, अनुकूलता की दासता का अन्त करने के लिए आती है । उससे भयभीत होना भूल है। अनुकूलता करुणित बनाने के लिए आती है । उसका भोग करना प्रमाद है । इस दृष्टि से अनुकूलता तथा प्रतिकूलता सदैव नहीं रहेंगी । इन दोनों का सदुपयोग अनिवार्य है । इनमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना असावधानी है । असावधानी के समान और कोई बात अहितकर नहीं है । असावधानी का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इस कारण वर्तमान में ही सजगतापूर्वक असावधानी का अन्त करना अनिवार्य है ।

        निज-विवेक के अनादर से ही असावधानी उत्पन्न होती है। असावधानी किसी और की देन नहीं है और न किसी कर्म-विशेष का ही फल है, अपितु उत्पन्न हुई असावधानी निज-विवेक का आदर करने से स्वतः नष्ट हो जाती है । दुःख का प्रभाव निज-विवेक के आदर में हेतु है और दुःख का भोग अविवेक को पोषित करता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 20-21)

Sunday 27 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 27 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, रविवार)
        
दुःख का प्रभाव 
    
     प्राकृतिक नियमानुसार जो न चाहने पर भी प्रत्येक प्राणी के जीवन में आ ही जाता है, वही दुःख है और जो चाहते हुए भी नहीं रहता, वही सुख है । ऐसे दुःख-सुख को बलपूर्वक रोकना अथवा बनाये रखना किसी भी प्राणी के लिए सम्भव नहीं है। जिसका रोकना सम्भव नहीं है, उसका आदरपूर्वक स्वागत करना अनिवार्य है और जिसके सुरक्षित रखने में सभी असमर्थ हैं, उसमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

        यह नियम है कि जिसे बलपूर्वक नहीं रोक पाते, उसके आने पर भयभीत होना और जो न चाहते हुए भी चला जाता है, उसकी दासता का अंकित होना - साधारण प्राणियों के लिए स्वाभाविक - सा है; यद्यपि वास्तविक माँग की खोज करने पर स्पष्ट विदित होता है कि भय तथा दासता से युक्त जीवन किसी को भी अभीष्ट नहीं है । इस दृष्टि से मानव-जीवन की मौलिक माँग सब प्रकार के भय तथा दासता से मुक्त होना है । 
 
        मंगलमय विधान के अनुसार माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में सम्भव है । कामना-पूर्ति कामना के अनुरूप परिस्थिति में ही सम्भव है, परन्तु माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में होती है । अतएव परिस्थिति-भेद होने पर माँग की पूर्ति से निराश होना अथवा किसी परिस्थिति विशेष का आह्वान करना असावधानी तथा भूल से भिन्न और कुछ नहीं है ।

        भयभीत होने पर प्राप्त सामर्थ्य, योग्यता तथा वस्तु का सद्व्यय नहीं हो पाता और प्राकृतिक नियमानुसार, भयभीत होने से आवश्यक विकास भी नहीं होता; कारण कि भय  से शक्ति क्षीण होती है और असावधानी और प्रमाद पोषित होते हैं, जो विनाश का मूल है । भय का सर्वांश में नाश करने के लिए अपने-आप आए हुए दुःख का प्रभाव आवश्यक है, उसका भोग नहीं।

        दुःख का भोग, गए हुए सुख की दासता तथा लोलुपता एवं उसकी आशा में आबद्ध करता है । जिसे किसी भी प्रकार न रख सकें, उसकी दासता, लोलुपता एवं आशा करना किसी के लिए भी हितकर नहीं है । इस दृष्टि से दुःख के भय तथा सुख की दासता का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 19-20)

Saturday 26 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 26 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
          
(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय। प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी, नित्य-नव रस की अभिव्यक्ति होती है । उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र सवाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है । यह जीवन का सत्य है ।

        सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझपर सभी का अधिकार है। बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वतः हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वतः अभिव्यक्ति होती है ।

        "मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए" - यह मानव का पुरुषार्थ है । सर्व-समर्थ प्रभु अपने हैं, सब कुछ प्रभु का है - यह वेद-वाणी तथा गुरुवाणी के द्वारा विकल्प-रहित विश्वासपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । विश्वास से भिन्न प्रभु-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है । निर्विकारता, चिर-शान्ति तथा अविनाशी जीवन ज्ञान से सिद्ध है और सबकुछ प्रभु का है, प्रभु अपने हैं - यह विश्वास से सिद्ध है । विश्वास भी बल तथा ज्ञान के समान दैवी-तत्व है ।

        बल जगत् की सेवा के लिए है और ज्ञान भूल-रहित होने के लिए है और विश्वास से ही प्रभु से आत्मीय सम्बन्ध होता है। बल का उपयोग विज्ञान से होता है अथवा यों कहो कि विज्ञान भी एक प्रकार का बल है, उसका कभी भी दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बल का दुरूपयोग न करना मानवता है अर्थात् जीवन-विज्ञान है। सदुपयोग के अभिमान तथा फलासक्ति से रहित होना अध्यात्मवाद अर्थात् मानव-दर्शन है । जीवन-विज्ञान हमें उदारता तथा अध्यात्म-विज्ञान हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । प्रभु अपने हैं, अपने में हैं - यह आस्था हमें प्रेम-तत्व से अभिन्न करती है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम ही जीवन है, जिसकी माँग बीज-रूप से मानव-मात्र में विद्यमान है । जीवन का जो सत्य है उसे स्वीकार करने से ही भूल की निवृति एवं योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति होती है । यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16-18)

Friday 25 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 25 November 2011
(मार्गशीर्ष अमावस्या, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
        
 (गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        दूसरों के द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत सम्पत्ति के विभाजन-मात्र से समाज की गरीबी नहीं मिटेगी । अपितु समाज में आलस्य और विलास की ही वृद्धि होगी, जो दरिद्रता का मूल है। राष्ट्रगत सम्पत्ति हो जाने से सरकार के नाम पर समाज में एक नौकरशाही वर्ग उत्पन्न हो जाता है । समाज में बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में देश की सारी सामर्थ्य आ जाती है । सामर्थ्य का अल्प संख्या में एकत्रित हो जाना, व्यक्तियों को सामर्थ्य के अभिमान में आबद्ध करना है, जो विनाश का मूल है । जब अधिक संख्या में सामर्थ्य विभाजित रहती है, तब मानव स्वाधीनतापूर्वक एकता तथा समता की ओर अग्रसर होता है ।

        अकिंचन तथा स्वाधीन होने से व्यक्ति को अपने लिए सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती । फिर वह देहातीत अर्थात् जगत् से परे के जीवन को पाकर सन्तुष्ट हो, उदार तथा प्रेमी स्वतः हो जाता है, जिससे मानव की जगत् और जगत् के प्रकाशक से वास्तविक एकता हो जाती है । स्वाधीनता, उदारता और प्रेम उसका जीवन हो जाता है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम अविनाशी तथा अनन्त तत्व हैं अथवा यों कहो कि प्रभु का स्वभाव और मानव का जीवन है। पराश्रय से गरीबी नाश नहीं होती । इसी कारण सम्पत्ति के आश्रित शान्ति नहीं मिलती । परिश्रम पर-सेवा के लिए है। उसके बदले में अपने को कुछ नहीं चाहिए । तभी मानव श्रम के अन्त में विश्राम को पाकर, स्वाधीन होकर, उदार तथा प्रेमी हो जाता है। हमें यही करना है कि स्वाधीनता का सदुपयोग कर स्वाधीन हो जाएँ ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16)

Thursday 24 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 24 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है। इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो दुरूपयोग न करने पर सदुपयोग स्वतः होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें।
      
         केवल कर्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृति हो जाय । राग-निवृति से ही स्वतः योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है । प्रकृति का विधान कर्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

        यह सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है। वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरूपयोग न करना कर्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत् के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत् में अपना कुछ नहीं है । अतः अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात् मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है ।
          
        निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है । जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वतः परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्तव्य-विज्ञान है । यह कर्तव्य मानव को स्वतः करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है । यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए । तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यकित में एकता होगी ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 15-16)

Wednesday 23 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 23 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
      
 (गत ब्लागसे आगेका)
जीवन-क्रान्ति की दिशा में एक अमर संदेश 
02-12-1972
       
         मानव-मात्र में बीज रूप से मानवता विद्यमान है। उस विद्यमान मानवता को विकसित करने के लिए, एकमात्र सत्संग-योजना ही अचूक उपाय है । बलपूर्वक जो परिवर्तन आता है, वह स्थायी नहीं होता है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है । गुण-दोष व्यक्तिगत हैं । किसी वर्ग विशेष को सदा के लिए हृदयहीन, बेईमान मान लेना न्यायसंगत नहीं है । सभी वर्गों में भले व बुरे व्यक्ति होते हैं । जीवन के परिवर्तन से क्रान्ति आती है, परिस्थिति-परिवर्तन से नहीं ।

        जीवन में परिवर्तन, जाने हुए असत् के त्याग से होता है, बल से नहीं । असत् के त्याग की प्रेरणा व्यापक हो सकती है, व्यक्तिगत सत्संग के प्रभाव से । क्या आप यह नहीं जानते हैं कि एक-एक महापुरुष के पीछे हजारों व्यक्ति चलते हैं, लेकिन हजारों व्यक्ति मिलकर एक महापुरुष नहीं बना सकते ?

        अधिकार-लालसा ने अकर्मण्यता को पोषित किया है और हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दिया है, जो विनाश का मूल है । प्राकृतिक विधान के अनुसार दूसरों के साथ किया हुआ कालान्तर में कई गुना होकर अपने प्रति हो जाता है । इस दृष्टि से बुराई के बदले बुराई करना अहितकर ही है । तो फिर सत्संग-योजना के अतिरिक्त और कोई उपाय क्रान्ति का नहीं है । यह जीवन का सत्य है ।

        मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग मत करो और न पराधीन रहो । यह महामंत्र ही व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रान्ति में उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास तथा अनुभव है। जो सत्य जीवन में आ जाता है, वह अवश्य विभु हो जाता है, यह वैज्ञानिक सत्य है । व्यक्तिगत क्रान्ति से ही सामाजिक क्रान्ति होगी, इस वास्तविकता में अविचल रहना चाहिए; सफलता अवश्यम्भावी है । ॐ आनन्द !
सद्भावना सहित
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 13-14)

Tuesday 22 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 22 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
  
दिव्य सन्देश 
श्रीवृन्दावन धाम
11-11-1973
प्राणप्यारे के प्रिय जनों !
        सविनय सेवा में निवेदन है कि जो सदैव होने से अभी और सभी का होने से अपना और सर्वत्र होने से अपने में मौजूद है, वही समर्थ है, वही सर्वेश्वर है और वही प्रेमियों का प्राणेश्वर है । उसी को साधन-तत्व अर्थात् गुरु-तत्व एवं साध्य-तत्व भी कहते हैं । वह गुरु-तत्व साध्य का ही प्रतिरूप है, साध्य की कृपामूर्ति ही गुरुमूर्ति है । यह प्रेमीजनों का अनुभव है।   

        साधक की गुरु-तत्व से ही अभिन्नता होती है, और गुरु-तत्व सर्वदा ही साध्य-तत्व से अभिन्न है । निज-ज्ञान गुरु के प्रकाश में अनुभव करो कि प्रतीति का प्रकाशक और उत्पत्ति का आधार जो है, वही अनादि, अनन्त, अविनाशी तत्व है । उसी से साधकों की जातीय एकता तथा नित्य सम्बन्ध है और वे ही सबके अपने हैं । यह वास्तविकता सद्गुरुवाणी के द्वारा ही स्वीकार की जाती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृति स्वतः होने लगती है । अतः जिन भागवतजनों ने गुरुमुख द्वारा उसे, जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा देखा नहीं, अपितु गुरुवाणी के द्वारा स्वीकार किया है, वे धन्य हैं ।

        गुरु-तत्व के बिना अनन्त अगोचर प्राणेश्वर से आत्मीय सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । इस दृष्टि से गुरु-तत्व ही एकमात्र श्रीहरि से मिलाने में हेतु है । ज्ञान का प्रकाश दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है और साधक के सर्व दुखों की निवृति हो सकती है; किन्तु नित नव-रस की उपलब्धि के लिए तो आस्था, श्रद्धा, विश्वाशपूर्वक गुरुवाणी द्वारा ही उसे स्वीकार किया जाता है, जो सभी का सब कुछ है । आत्मीय सम्बन्ध ही एकमात्र अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति में हेतु है । यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सद्गुरुवाणी को अपनाया है । गुरु-तत्व की प्राप्ति होने पर ही भगवत्-तत्व की प्राप्ति होती है । यह भगवत्प्राप्त साधकों का अनुभव है ।

        निज-ज्ञान के आदर से साधक चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु भक्ति-तत्व की प्राप्ति में तो एकमात्र सद्गुरुवाणी में अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वास ही अचूक उपाय है । यह जीवन का सत्य है । हम सभी सद्गुरु जयन्ती महोत्सव मना रहे हैं । हमें अपने आपके सम्बन्ध में सजीवता लानी चाहिए । वह तभी सम्भव होगी, जब हम अपने में अपने परम प्रेमास्पद को स्वीकार कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जायें। सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने विश्वासी जनों को अपनी आत्मीयता प्रदान करें, जिससे वे पावन प्रीति पाकर कृत-कृत्य हो जायें ! इसी सद्भावना के साथ,
अकिंचन
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 11-12)     

Monday 21 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 21 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पत्ति एकादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

"Swami Sharnanandji - in the words of Swami Ramsukhdasji"
(गत ब्लागसे आगेका)
        आपलोग भी आपसमें एक-दूसरे को सत्संगकी बातें सुनाया करो। इससे आपको भी लाभ होगा। सुनाने से ज्यादा लाभ होता है, यह हमने देखा है। शरणानन्दजी महाराज ने एक बात कही थी कि जो अच्छा सुनाता है, उसकी उम्र बढ़ जाती है ! लोग चाहते हैं कि इनसे बढिया बातें मिलती रहें । इसलिए सुननेवालोंकी सद्भावना के कारण वह जल्दी नहीं मरता । - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 85)

        एक आदमीने शरणानन्दजी महाराज से कहा कि जिनके पास ज्यादा धन है, वे आधा धन निर्धनको दे दें तो वे भी सुखी हो जायँ। शरणानन्दजी ने पूछा कि क्या तुम्हारा पक्का विचार है ? वह बोला कि हाँ, पक्का विचार है । शरणानन्दजी ने कहा कि मेरी आँखें नहीं है, तुम्हारे पास दो आँखें हैं तो एक आँख मेरेको दे दो। एक आँख से तुम्हारा भी काम चल जाएगा और मेरा भी। यह सुनते ही वह भाग गया, ठहरा नहीं ! कारण यह है कि लोग भीतरमें दूसरेका धन देखकर जलते हैं, पर बाहरसे निर्धनोंके हितकी कोरी बात बनाते हैं । इसलिए भगवान् के समान दूसरे का हित चाहनेवाला कोई नहीं है । - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 131)

        शरणानन्दजी से किसी ने पूछा कि महाराज, यहाँ कार्यक्रम पूरा करके आप कहाँ जाओगे ? वे बोले कि फुटबालको क्या पता कि खिलाड़ी उसे कहाँ लुढ़कायेगा ? जहाँ मालिक लुढ़कायेगा, वहीं जाएँगे । इस तरह शरणागत का भाव फुटबालकी तरह होता है। प्रिया और प्रियतमके खेलमें फुटबाल बन जाओ । दोनोंके चरणोंका स्पर्श हो और दोनों पीछे-पीछे भागें ! दोनों की जय-पराजय भी हमारे हाथमें ! हमें किसी की गरज नहीं और प्रिया-प्रियतम दोनोंको हमारी गरज ! - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 180)

         शरणानन्दजी की पुस्तकों में गीताजी की असली-असली गहरी बातें आती हैं । इतने जानकार होने पर भी उनमें अपनी जानकारी का अभिमान कभी आया ही नहीं ! उनकी मान्यता थी कि सिद्धान्त भगवान् का होता है, पर व्यक्ति अपना मानकर उसको अशुद्ध कर देता है । वे कहते थे कि संसार की कोई वस्तु व्यक्तिगत है ही नहीं । उन्होंने ऐसी बारीक-बारीक बढिया बातें बतायीं हैं, जो पहलेवाली बातों से भी विशेष हैं और उनसे आदमीमें बहुत जल्दी परिवर्तन होता है । - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 213)  

- (शेष आगेके ब्लागमें)- "बिन्दुमें सिन्धु" पुस्तक प्राप्ति स्थान (गीता प्रकाशन, गोरखपुर, Mobile : 09389593845, 07668312429) Email: radhagovind10@gmail.com
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Sunday 20 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 20 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

"Swami Sharnanandji - in the words of Swami Ramsukhdasji"
(गत ब्लागसे आगेका) 
        श्रीशरणानन्दजी महाराज ने कहा कि जो हमारे बिना रह सकता है, उसके बिना हम भी मौज से रह सकते हैं। - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 34)

        मेरा भगवान में प्रेम हो जाय। इस एक बात में सबकुछ आ जाएगा। इसमें पुरुषार्थ इतना ही है कि इस बात को भूलें नहीं, केवल याद रखें । ऐसा करोगे तो मैं अपने पर आपकी बड़ी कृपा मानूँगा, एहसान मानूँगा। केवल याद रखना है, इतनी ही बात है। ऊँची-से-ऊँची सिद्धि इससे हो जाएगी । सदा के लिए दुःख मिट जाएगा। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - ये तीनों योग सिद्ध हो जाएँगे । केवल अपनी आवश्यकता को याद रखें, भूलें नहीं। यह बात मामूली नहीं है । मुझे किसी ग्रन्थ में यह बात मिली नहीं । स्पष्टरूप से केवल एक जगह सन्तों की (श्रीशरणानन्दजी महाराज) की वाणी में मिली है । शास्त्रों की बात की अपेक्षा अनुभवी सन्तों की बात श्रेष्ठ है । - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 85)

        अहम् (मैंपन) के साथ जो जानना होता है, उसमें अभिमान होता है; परन्तु अहम् के बिना जो जानना होता है, उसमें अभिमान नहीं होता । इसे श्रीशरणानन्दजी महाराज ने 'अभिमानशून्य अहम्' कहा है, जो व्यवहार मात्र के लिए होता है । - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 132)

        शरणानन्दजी से किसी ने पूछा कि आपका गुरु कौन है ? वे बोले कि जो मेरे से ज्यादा जानता है, वह मेरा गुरु है । फिर पूछा कि आपका चेला कौन है ? जो मेरे से कम जानता है वह मेरा चेला है। - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 139)

        " ‘दु:ख का प्रभाव’ एक पुस्तक है शरणानन्दजी की, पढ़ो उसको। शरणानन्दजी की बातें जल्दी समझ में नहीं आतीं। बड़ी विचित्र बातें हैं। उन्होंने कहा है कि मैं एक क्रान्तिकारी संन्यासी हूँ। जितने साधन बताये हैं, सबमें क्रान्ति कर दी, एकदम! ऐसी विचित्र बातें बतायी हैं जो आदमी के कान खुल जायँ, आँख खुल जायँ, होश आ जायँ। - स्वामी श्रीरामसुखदासजी "

" Listen This Discourse In The Voice Of Swami Shri Ramsukhdasji "

- (शेष आगेके ब्लागमें)- "सीमा के भीतर असीम प्रकाश" पुस्तक प्राप्ति स्थान (गीता प्रकाशन, गोरखपुर, Mobile : 09389593845, 07668312429)
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Saturday 19 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 19 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

"Swami Sharnanandji - in the words of Swami Ramsukhdasji"

        श्रीशरणानन्दजी महाराज का मार्मिक वचन है कि 'किसी को दुःख देकर जो सुख लेते हैं, वह परिणाम में अनन्त दुःख देता है और किसी को सुख देकर जो दुःख लेते हैं, वह परिणाम में महान आनन्द देता है।' - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 76)

        सगुण और निर्गुण दोनों को ठीक तरह से जाननेवाले बहुत कम हैं। दोनों से उपर जाननेवाले बहुत कम महात्मा हुए हैं । शरणानन्दजी महाराज ऐसे महात्मा थे । परन्तु उनके बात को हरेक ठीक तरह से पकड़ नहीं पाता । - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 15)

        (श्रीशरणानन्दजी महाराज) कहते हैं कि 'मैंने चेला बनाना शुरू किया; परन्तु चेलों की यह आदत है कि गुरूजी को कसकर पकड़ लेते हैं, भगवान् को नहीं पकड़ते । तो मैंने चेला बनाना छोड़ दिया। - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 27)

        "शरणानन्दजी महात्मा क्या थे महाराज ! मेरे मनसे अगर आप पूछो तो नये दार्शनिक थे ! जैसे योग है, सांख्य है, पूर्व मीमांसा है, उत्तर मीमांसा है, न्याय है, छ: दर्शन है। छ: दर्शनोंसे निराला दर्शन है उनका। इतना किसने समझा है? किसने ख्याल किया है? बताओ । मैं ये बात बता सकता हूँ आपको । दार्शनिक, नये दार्शनिक ! परन्तु किसका विश्वास है? ज्ञानयोगमें, कर्मयोगमें, भक्तियोगमें विलक्षण बातें बतायी उन्होंने; उनकी बातें अकाट्य है; कोई खण्डन नहीं कर सकता उनकी बातोंका । आपके शास्त्र आपसमें खण्डन करते हैं एक-दूसरेका, मगर उनकी बातों का खण्डन करें कोई ! और प्रमाण देते नहीं हैं, किसी शास्त्र का, किसी पुस्तक का कोई प्रमाण नहीं । उनसे कहा था कि प्रमाण क्यों नहीं देते ? उन्होंने कहा कि जिसे संदेह हो वे प्रमाण दें, मुझे संदेह ही नहीं तो प्रमाण क्यों दें? प्रमाण कि क्या आवश्यकता है? उस संत को कितना आदर दिया हमलोगोंने? -स्वामी श्रीरामसुखदासजी "     
                 

        "शरणानन्दजी महाराज ने अपने को बड़ा क्रान्तिकारी संन्यासी बताया है। इन्होंने ऐसी बारीक-बारीक बढ़िया बातें बतायी हैं, जिसमें पहले वाली बातें उनसे विशेष बातें बतायी हैं। शरणानन्दजी की बातों से बहुत जल्दी परिवर्तन होता है और सबके सिद्धान्त से अगाड़ी हो, ऐसी बातें निकाल के गये हैं। उसमें भी ये बात बतायी हैं, कि सबसे श्रेष्ठ आदमी कौन है? जो हरि का आश्रय लेता है और विश्राम करता है, दो बातें बतायी हैं। --स्वामी श्रीरामसुखदासजी"


- (शेष आगेके ब्लागमें) - "सीमा के भीतर असीम प्रकाश" पुस्तक प्राप्ति स्थान (गीता प्रकाशन, गोरखपुर, Mobile: 09389593845, 07668312429)
Email: radhagovind10@gmail.com

Friday 18 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 18 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

45.    जो अपने में नहीं है, वह कभी भी अपने को नहीं चाहिए - यही वास्तविक त्याग है। इसको अपनाये बिना चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति तथा परम प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

46.    निर्लोभता के बिना दरिद्रता का, निर्मोहता के बिना भय का, निष्कामता के बिना अशान्ति का और असंगता के बिना पराधीनता का नाश नहीं होता । यह दैवी विधान है ।

47.    देहाभिमान रहते हुए कभी भी कोई भी पराधीनता आदि विकारों से रहित नहीं हो सकता । इस दृष्टि से सुख, सुविधा, सम्मान की वासना का अन्त करना अनिवार्य है, जो एकमात्र सत्य को स्वीकार करने पर ही सम्भव है ।

48.    आंशिक साधना के आधार पर अपने को सन्तुष्ट करना बड़ी ही भयंकर असाधना है । इससे सजग साधक को बड़ी ही सावधानीपूर्वक अपने को बचाना चाहिए । यह तभी सम्भव होगा जब साधक को आंशिक असाधना भी असह्य हो जाय । उसके लिए आंशिक साधना को साधना नहीं मानना चाहिए ।

49.    असाधन प्राकृतिक नहीं है । मानव अपनी ही भूल से असत् के संग को अपनाकर असाधन को जन्म देता है । जिसे मानव ने अपनी भूल से उत्पन्न किया है, उसका नाश भूल-रहित होने पर ही होगा । इस दृष्टि से भूल-रहित होने में ही मानव का पुरुषार्थ है। भूल-रहित होने के लिए अपनी भूल का अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है । अपनी भूल का अनुभव तभी होगा, जब आंशिक साधना को अपनी साधना स्वीकार न किया जाय, अपितु आंशिक असाधन को भूल मान लिया जाय । 

- ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 24-26) [For details, please read the book]

Thursday 17 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 17 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

39.    मेरा कुछ नहीं है, यह जानने की बात है और बुराई रहित होना, यह धर्म है, धारण करने की बात है । तो धर्म को धारण करो, भूल रहित हो जाओ और परमात्मा को मान लो। आपका जीवन कल्याणमय हो जाएगा ।

40.    भगवान् की दृष्टि से हम कभी ओझल नहीं हैं, उनकी सत्ता से हम कभी बाहर नहीं हैं । हम भगवान् की महिमा स्वीकार नहीं करते, उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो उससे भगवान् हमको दूर मालूम होते हैं ।

41.    भगवान् के अस्तित्व को स्वीकार करना ही तो आस्तिकता है और महत्व को स्वीकार करना ही भगवान् की स्तुति है और भगवान् के सम्बन्ध को स्वीकार करना ही उपासना है।

42.    भगवान् के अस्तित्व को, महत्व को और सम्बन्ध को स्वीकार करना अपना काम है और उस स्वीकृति को सजीव कर देना, यह प्रभु का काम है । जब हम अपना काम ठीक कर देते हैं तो प्रभु का काम ठीक होता रहता है, इसमें कमी होती नहीं है।

43.     साधक के जीवन में असफलता के लिए कोई स्थान ही नहीं है - इस महावाक्य में अविचल आस्था करते ही सफलता की उत्कृष्ट लालसा तीव्र होती है, जो समस्त कामनाओं को भस्मीभूत कर साधक को साध्य से अभिन्न कर देती है । यह सजग साधकों का अनुभव है ।

44.    अपने परम प्रेमास्पद सदैव अपने ही में हैं । उनमें अपनी अविचल आस्था रहनी चाहिए । प्रेमास्पद के अस्तित्व तथा महत्व को स्वीकार कर उनसे आत्मीय सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है । आत्मीय सम्बन्ध से ही साधक में अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति होती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 19-24) [For details, please read the book]

Wednesday 16 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 16 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

31.    जगत् की उदारता, प्रभु की कृपालुता और सत्पुरुषों की सद्भावना - ये प्रत्येक साधक के साथ सदैव रहती हैं ।

32.    एकान्त का पूरा लाभ तब होता है जब हमारा सम्बन्ध एक ही से रह जाये । अनेक सम्बन्ध लेकर एकान्त में जाते हैं तो उतना लाभ नहीं होता, जितना होना चाहिए । हमारे सम्बन्ध पहले बदलने चाहिए । एक से रहे, अनेक से नहीं ।

33.    संसार परमात्मा की प्राप्ति में बाधक नहीं है, बल्कि सहायक है । उसका जो हम सम्बन्ध स्वीकार करते हैं वही बाधक है।

34.    परमात्मा कहाँ है, कैसा है, क्या है - इसके पीछे न पड़ते हुए 'परमात्मा' है, यह मान लेना चाहिए । इससे बहुत लाभ होता है ।

35.    अपनी भूल को जान लेने से भी बड़ा लाभ होता है । क्योंकि भूल को जानने से वेदना होती है और वेदना से भूल नाश होती है और भूल रहित होने से अपना हित होता है ।

36.    मौन का अर्थ खाली चुप होना नहीं है, बल्कि न सोचना भी है, न देखना भी है अपनी ओर से । मुझे जो चाहिए सो तो मुझमें है, फिर इंद्रियों की क्या अपेक्षा ?

37.    मौन के पीछे एक दर्शन है कि हमको जो चाहिए वह अपने में है, अपना है और अभी है । यही सर्वश्रेष्ठ परमात्मवाद है ।

38.    भगवान की महिमा का कोई वारापार नहीं है । पसन्द भर करना हमारा काम है; बाकी तो भगवान की अहैतुकी कृपा सारा काम स्वतः कर देती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 17-19) [For details, please read the book]